डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी के बारे में दस बड़ी बातें

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विक्रम उपाध्याय

अपने 52 साल के छोटे जीवन काल में डॉ श्यामाप्रसाद मुकर्जी (1901-1953) एक प्रखर जन नेता, शिक्षाविद, काबिल मंत्री और देश में एक वैकल्पिक राजनीतिक विचार एवं धारा के जनक के रूप में छाये रहे।

महज 33 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति बन गए और उस संस्थान मे एक नवजीवन का संचार कर दिया।

1933 से 1937 के दौरान दो बार उन्होंने विश्वविद्यालय के दो-दो वर्ष की अवधि के लिए अपनी सेवाएं दी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति के रूप में उन्होंने उन राष्ट्रवादी विद्वानों को पूरा समर्थन दिया, जिनकी भारतीय दृष्टिकोण से इतिहास शोध में गहरी रूचि थीं।

उन्होंने उत्खनन को खूब बढ़ावा दिया और भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व से संबंधित पहला संग्रहालय विश्वविद्यालय में स्थापित किया।

उन्होंने भारतीय भाषाओं को खूब बढ़ावा दिया और गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर को विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बाग्ला भाषा में उद्बोधन के लिए निमंत्रित किया। यह पहला अवसर था जब किसी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में किसी भारतीय भाषा में भाषण किया गया।

हिंदुओं के लिए ऐसे कठिन समय में, जबकि बंगाल में मुस्लीम लीग का शासन था, डॉ मुकर्जी ने शिक्षण जैसे अपेक्षाकृत आराम के काम का त्याग कर राजनीति में जाने का निर्णय लिया।

उन्होंने हिंदू महासभा में प्रवेश लिया और इस तरह वे सीधे राजनीति में आ गए। राजनीति में उनके इस प्रवेश का स्वागत खुद महात्मा गांधी ने किया, क्योंकि वे डॉ मुकर्जी के खाटी राष्ट्रीय विचारों से खासा प्रभावित थे और उन्होंने उन्हें कहा भी -‘ मालवीय जी (पंडित मदन मोहन मालवीय ) के बाद हिंदुओं को नेतृत्व देने वाला कोई चाहिए था।

डॉ मुकर्जी ने इसके जवाब में कहा -‘ लेकिन आप मुझे सांप्रदायिक कहेंगे’ इस पर गांधी जी ने कहा -‘ जिस तरह समुद्र मंथन के बाद भगवान शिव ने विषपान किया था, उसी तरह भारतीय राजनीति के विष का पान करने वाला भी कोई होना चाहिए। वो आप हो सकते हो’

1941 में डॉ मुकर्जी ने फजलुल हक की कृषक प्रजा पार्टी की मदद से बंगाल में सरकार बनाने में सफलता हासिल की और मुस्लिम लीग को सत्ता से दूर कर दिया।

इस सरकार के वित्तमंत्री के रूप में डॉ मुकर्जी का काम अ़िद्वतीय था, लेकिन जब उन्होंने देखा कि औपनिवेशिक प्रशासन स्वतंत्रता आंदोलनकारियों का और खासकर मिदनापुर के बाढ़ पीडि़तों का दमन कर रहा है तो उन्होंने 1942 में इस सरकार से इस्तीफा दे दिया।

यह उनका आत्मबल ही था जिसने व्यक्तिगत जोखिम और क्षति की परवाह किये बिना उन्हें सच्चाई और सदकर्म का चैंपियन बनाए रखा।

महात्मा गांधी और सरदार पटेल की पहल पर स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए डॉ मुकर्जी को आमंत्रित किया गया।

संविधान सभा में अपनी मजबूत उपस्थिति और संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका के साथ साथ डॉ मुकर्जी स्वतंत्र भारत के पुर्नऔद्योगिकीकरण में अपनी दूरदर्शिता और बुद्धिमता दृष्टिकोण का परिचय दिया।

चाहे वह रक्षा का स्वदेशीकरण हो या मजबूत सैन्य शक्ति हासिल करना हो, या फिर प्रौद्योगिकी उन्नयन हो या कौशल विकास हो, डॉ मुकर्जी के इसके प्रारंभिक प्रस्तोता रहे। उन्होंने भारतीय उद्योग और कृषि ज्ञान पर भी खूब जोर दिया।

इस दौरान डॉ मुकर्जी ने महाबोधि सोसायटी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष होने के नाते दक्षिण-पूर्व एशिया के बौद्ध देशों में जिनमें मुख्य रूप से बर्मा (अब म्यांमार), सीलोन (अब श्रीलंका), कंबोडिया और तिब्बत के साथ संबंध स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाई।

इस संबंध को और प्रगाढ़ बनाने के लिए डॉ मुखर्जी ने दो बौद्ध शिष्य परंपराएं- महामोगालाना और सरीपुत्ता के पवित्र अवशेष इंग्लैंड से मंगवाएं और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के निमंत्रण पर दोनों परंपराओं के अवशेषों को वहां ले कर गए।

इन देशों में डॉ मुखर्जी का शाही स्वागत किया गया। कंबोडिया राजशाही परिवार के युवराज नोरोडोम सिंहान्युक ने डॉ मुकर्जी को अवशेषों के साथ कंबोडिया आने का विशेष निमंत्रण दिया, जहां 50 हजार से अधिक लोग डॉ मुकर्जी को सुनने आए।

उन्होंने बुद्ध का संदेश सुनाते हुए यह बताया कि किस तरह भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के देश एक साथ आकर एशिया में एक नये युग की शुरुआत कर सकते हैं।

यह डॉ मुकर्जी की हार न मानने वाली प्रवृति का ही परिणाम था कि भारत सरकार की ओर से उस पवित्र अवशेष का कुछ हिस्सा बर्मा को स्थाई ऋृण के रूप में दिया गया। इस अवशेष को तब के यांगुन के बाहरी क्षेत्र काबा ये पागोडा में स्थापित किया गया।

तब बर्मा के प्रधानमंत्री यू नू ने डॉ मुकर्जी को पत्र लिख कर कहा था कि उनके लोग मित्रता के इस पवित्र उपहार के प्रति हमेशा उपकृत रहेंगे। यहां भोपाल के निकट सांची में भी उस पवित्र अवशेष की प्रतिस्थापना डॉ मुकर्जी के कारण ही हुआ।

डॉ मुकर्जी के सिद्धांत और लोगों के प्रति उनकी बचनबद्धता का ही एक और उदाहरण है पूर्वी पाकिस्तान से पलायन कर आए लोगों की दुर्दशा देखने के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल से उनका त्यागपत्र। उसके बाद उनके द्वारा नये राजनीतिक आंदोलन और मंथन का उदय।

अक्टूबर 1951 में जनसंघ की स्थापना के समय उन्होंने नई पार्टी की भविष्य की दिशा तय करते हुए कहा था कि नई पार्टी भारतीय संदर्भ को प्रदर्शित करने वाली राजनीति और काम पर आधारित होगी।

उनकी यह वाणी सबमें उर्जा भरने वाली और मार्गदर्शक सिंद्धांत सिद्ध हुई। भारतीय जनसंघ के बारे में उन्होंने कहा- आज इसका उदय अखिल भारतीय राजनीतिक पार्टी के रूप में हुआ है, जो प्रमुख विपक्षी पार्टी के रूप मंे काम करेगी।

हमने जाति, धर्म या समुदाय में भेद किए बिना इस पार्टी का दरवाजा सभी के लिए खोल दिया है।

हम यह मानते हैं कि परंपरा, रिवाज, मजहब और भाषा के आधार पर भारत एक विविधताओं वाला देश है, लेकिन सहभागिता और आपसी समझदारी, जो कि हमारी मातृभूमि के प्रति अगाध श्रद्धा, निष्ठा वफादारी के कारण बनी है, के तहत एकजुट हो।

यद्यपि जाति और मजहब के आधार पर राजनीतिक अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा देना खतरनाक होगा, फिर भी भारत के बहुसंख्यक की जिम्मेदारी बनती है कि अपनी मातृभूमि के प्रति पूर्ण समर्पित और निष्ठावान सभी लोगों को आश्वस्त करें कि कानून के तहत उन्हें पूरी सुरक्षा प्रदान की जाएगी और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मामले में उनके साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा।

हमारी पार्टी यह आश्वासन बिना किसी पूर्वाग्रह के देती है। हमारी पार्टी यह भी मानती है कि भारत का भविष्य भारतीय संस्कृति और मर्यादा के पालन और प्रोत्साहन में ही निहित है।

वर्ष 1951-52 के आम चुनाव में डॉ मुकर्जी भारत के पहले संसद में एक दमदार और दिप्यमान विपक्षी नेता के रूप में उभर कर सामने आए। सभी विपक्षी दल कांग्रेस के विशाल रूप और एकक्षत्र राज को झुकाने और दिशा निर्देंश के लिए डॉ मुकर्जी की तरफ ही देखा करते थे।

यह उन्हीं की जीजिविशा, भिड़ने की इच्छाशक्ति और सदन समन्वय पटुता थी कि उन दिनों भी भारतीय लोकतंत्र बराबरी के आधार पर चलता रहा।

एक अघोषित विपक्ष की नेता की तरह डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी सरकार के कामकाज पर गहरी नजर रखते थे और सरकार की जवाबदेही, काम काज के तरीके ओर निष्पक्षता पर बोलते रहे।

छोटे मोटे मुद्दे पर कभी भी समझौता न करने वाले और ना भविष्य को लेकर कोई गणित लगाने वाले डॉ मुकर्जी का अंतिम संघर्ष भारत के एकीकरण का रहा, जब उन्होंने भारत गणराज्य के साथ जम्मू-कश्मीर के पूर्ण विलय का बीड़ा उठाया।

इस चुनौती को उन्होंने एक महानायक के रूप में स्वीकारा और स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार द्वारा गिरफ्तारी को भी झेला।

बात जब भारत की एकता और इसकी संप्रभुता को बकरार रखने की हो तो दुनिया की कोई ताकत डॉ मुकर्जी को पीछे नहीं धकेल सकती थी और उन्होंने इसके लिए अपना बलिदान दे दिया ताकि इस महत्वपूर्ण भूभाग को बचाया जा सके।

भारत अपनी एकता और भविष्य को सुरक्षित कर सके। उनके संघर्षपूर्ण एवं अनोखे जीवन का हर पहलु भारत की मॉ की सेवा और उसे कीर्तिमान बनाये रखने की अपेक्षा व इच्छा से जुड़ा है।

गंाधी जी के शब्द सही साबित हुए डॉ मुकर्जी ने भारतीय राजनीति के विष को पी लिया ताकि भारत स्वतंत्र व अखंड बना रहे।

विक्रम उपाध्याय बिग वायर हिंदी के संपादक हैं ।

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