एफडीआई के भरोसे मोदी सरकार !

The Prime Minister, Shri Narendra Modi and the President of Russian Federation, Mr. Vladimir Putin at the bilateral meeting, on the sidelines of the Shanghai Cooperation Organisation (SCO) summit, in Tashkent, Uzbekistan on June 24, 2016.

The Prime Minister, Shri Narendra Modi and the President of Russian Federation, Mr. Vladimir Putin at the bilateral meeting, on the sidelines of the Shanghai Cooperation Organisation (SCO) summit, in Tashkent, Uzbekistan on June 24, 2016.

विक्रम उपाध्याय

एक पुरानी कहावत है -‘ घर का जोगी जोगड़ा आन का गावं का सिद्ध। इसके भाव को हम विदेशी निवेश में संदर्भ में पढ़ सकते हैं जब एक के बाद एक सरकारें घरेलू निवेशकों को दरकिनार कर विदेशी निवेशकों के लिए फूल माला लेकर खड़ी रहती हैं।

भारत-भारतीयता और भव्यता का नारा लेकर चलने वाले प्रधानमंत्री मोदी भी विदेशी निवेशकों के लिए बिछी लाल कालीन पर लगातार उपहारों का गुलदस्ता सजा रहे हैं।

अभी हाल ही में रक्षा, उड्डयन, खाद्य प्रसंस्करण, दवा और निजी सुरक्षा व प्रसारण में विदेशी निवेश की शर्तों और सीमाओं को नये सिरे से तय कर यह उद्घोषणा कर दी है कि भारत अब दुनिया का सबसे खुली अर्थव्यवस्था बन गया है।

यानी निवेश करने के लिहाज से दुनिया की किसी भी कंपनी के लिए कोई रोक टोक नहीं है।

लोग यह जानता चाहते हैं कि क्या राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि मानने वाली भाजपा सरकार के पास अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाकर विकास की रेलगाड़ी दौड़ाने का कोई और विकल्प नहीं है। क्या सिर्फ विदेशी निवेशकों के भरोसे हम 7 या 8 फीसदी की जीडीपी प्राप्त कर सकते हैं।

दुनिया का कोई भी देश अपने लोगों की क्षमता और अपने संसाधन के बूते ही आगे बढ़ सकता है।

यह हम नहीं विश्व बैंक के एक वरिष्ठ अधिकारी ओनो रॉल ने 2013 में लखनउ में कहा था। विश्वविद्यालय में चर्चा के दौरान उन्होंने स्पष्ट कहा कि भारत जैसे एक विकासशील देश को विदेशी निवेशकों को अपनी खींचने के बजाय घरेलू निवेशकों को आकर्षित करना चाहिए।

उन्होनंे आगे कहा- विदेशी निवेश भारत के विकास का मानक नहीं हो सकता। विश्व बैंक का कोष भी सिर्फ भारत के लिए नहीं है। भारत के लिए सकारात्मक बात यह है कि यहां पढ़े लिखे युवकों की संख्या बहुत अधिक है, जिन्हें रोजगार की जरूरत है और विदेशी निवेश से रोजगार के अवसर कम ही मिलते हैं।

लेकिन केंद्र की सरकार को विदेशी निवेश के बढ़ते आकड़े मंे ही अपनी सफलता दिखती है। प्रधानमंत्री मोदी भी इस बात के लिए मुरीद हुए जा रहे हैं कि उनके शासन काल में सबसे अधिक विदेशी निवेश आया है।

अपनी धुंआधार विदेश यात्रा में वहां के निवेशकों से मिलना प्रधानमंत्री कभी नहीं भूलते। दुनिया के तेजी से बढ़ रहे उद्योगों के स्वामियों और प्रबंधकों से लगातार खुद समझा रहे हैं।

तो क्या पूरी दुनिया के निवेशक भारत में आने के लिए उतावले हैं। कम से कम आकड़े ऐसा नहीं कहते। अंकटाड द्वारा तैयार वैश्विक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की रिपोर्ट यह बताती है कि विदेशी निवेश की रफ्तार कुछ वर्षों से धीमी पड़ी हुई है।

वर्ष 2014 में पूरे विश्व में कुल 1.23 खरब डॉलर का निवेश हुआ जो कि वर्ष 2013 में हुए 1.47 खरब डॉलर के मुकाबले 16 फीसदी कम था। अंकटाड ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2016 में 1.50 खरब और 2017 में  1.70 खरब डॉलर के निवेश होंगे। तो क्या भारत इसमें से एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करने में सफल होगा।

विदेशी निवेश को आकर्षित करने वाले प्रमुख देशों की सूची देखे तो इस मामले में भी भारत पीछे दिखता है।

इस सूची में चीन सबसे उपर, उसके बाद अमरीका , फिर ब्रिटेन, सिंगापुर, ब्राजील, कनाडा, आस्ट्रेलिया और फिर इंडिया का नाम आता है।

भारत और चीन के बीच इस मामले की प्रतिस्पर्धा देखें तो चीन के पास हमसे पांच गुणा ज्यादा विदेशी निवेश आता है। फिर भी चीन की अर्थव्वस्था डगमगा गई है।

वहां से विदेशी निवेशक निकल कर भागने को तैयार हैं। इस लिहाज से देखे तो भारत के लिए एक अवसर बनता है।

चीन की खराब माली हालत ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जिनमें यूरोजोन को लेकर अनिश्चितता, अरब और यूरोप के कई देशों में तनाव और मारकाट और कई अर्थव्यवस्थाओं में संकट के कारण भारत विदेशी निवेशकांे का एक पसंदीदा गंतव्य बन सकता है।

पिछले आकड़े भी बताते हैं कि विदेशी निवेशकों ने एशिया में अपना निवेश 9 फीसदी बढ़ाया है। भारत में आने वाले विदेशी निवेश की वृद्धि दर पिछले 22 फीसदी थी और इस वर्ष उससे भी अधिक रहने की संभावना है।

प्रश्न यही है कि क्या विदेशी निवेश के आने से भारत की स्थिति सुधर जाएगी। देश में रोजगार का सृजन होगा और नये उद्योग धंधे लगेंगे। विदेशी निवेश के ट्रेंड बताते हैं कि नये उद्योग धंधे के बजाय विदेशी निवेशकों की ज्यादा रूचि व्यापार के अधिग्रहण या विलय में होती है।

2014 के कुल विदेशी निवेश का 14 फीसदी सिर्फ अधिग्रहण और विलय में लिए ही आया। 2014 में विदेशी निवेशकों ने 200 अरब डॉलर का निवेश पुराने बिजनेस पर कब्जा जमाने के लिए ही किया।

यही डर भारत में भी है। खास कर दवा के क्षेत्र में आने वाले दिनों कंपनियां बिकती हुई दिखेंगी। यानी घरेलू उद्योगों पर विदेशी कंपनियों का कब्जा हो जाएगा।

लोग यह भी जानता चाहते हैं कि क्या भारत के आंतरिक स्रोत इतने सूख चुके हैं कि हम अपना विकास खुद नहीं कर सकते? क्या हमारी घरेलू कंपनियों के पास निवेश की क्षमता समाप्त हो चुकी है? इन सवालों का जवाब इन आकड़ों में है।

भारत के पास अपनी खुद की सात खरब 87 अरब डॉलर की पूंजी एवं संपत्ति है। जिसका उपयोग ठीक ढंग से किया जा सकता है। निजी क्षेत्र भी इतने कंगले नहीं हुए कि उन्हें मरा हुआ मानकर सिर्फ विदेशी कंपनियों की ही आरती उतारे। बल्कि सच्चाई यह है कि भारतीय कंपनियां पिछले दिनों विदेशों में खूब निवेश किए हैं।

अंकटाड के ही अनुसार वर्ष 2014 में भारत से 10 अरब डॉलर का निवेश बाहर के देशों में हुंआ है। यदि भारतीय कंपनियों की क्षमता विदेशों में निवेश की है तो वे भारत मे निवेश क्यों नहीं कर रहीं? इस सवाल का जवाब सरकार की नीतियों में है।

एक बड़े उद्योगपति का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी भी विपक्ष के इस आलोचना से डर कर कि उनकी संाठ गांठ बड़े घरानों से है, मिलना पसंद नहीं करते।

वे विदेशी निवेशकों से तो हाथ मिला सकते हैं लेकिन घरेलू उद्योगपतियों के साथ अलग से बैठक नहीं कर सकते। विपक्ष फौरन अडानी अंबानी की राग अलापने लगता है और सरकार उससे घबरा जाती है।

उनका कहना है कि यदि धरेलू कंपनियों को उतना ही महत्व और छूट मिले तो देश में ही पूंजी की कोई कमी नहीं होगी।

यह सच भी है आकड़े बताते हैं कि घरेलू निजी क्षेत्र की निवेश क्षमता किसी भी स्तर पर कम नहीं है। 2009 में जब मनमोहन सिंह ने दूसरी पारी शुरू की थी उस समय घरेलू निवेशकों ने 17.37 लाख करोड़ रुपये का निवेश प्रस्ताव दिया था, लेकिन उसके बाद घरेलू निवेश प्रस्ताव लगातार गिरता चला गया।

2013 मे यह निवेश प्रस्ताव 5.3 लाख करोड़ तक गिर गया। यह उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री मोदी निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन देंगे तो स्थिति फिर से सुधर जाएगी, लेकिन उनके शासन के एक साल बाद यानी 2015 में यह निवेश प्रस्ताव और नीचे गिर कर चार लाख करोड़ रुपये पर आ गया।

अब यक्ष प्रश्न यह है कि विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने और नियमों में ढ़ील देने का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर किस तरह पड़ेगा। उदार विदेश निवेश काल का फायदा उपभोक्ताओं को कितना होगा और भारीय उद्योग को नुकसान कितना होगा।

इसी में एक प्रश्न और जुड़ा है कि स्वदेशी के पुरोधा पंडित दीनदयाल उपाध्याय को अपना विचार पुरुष मानने वाली भाजपा अपने कैडर को कैसे समझाएगी?

नये विदेशी निवेश के नियम के अनुसार अब विदेशी कंपनियां नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में 100 फीसदी निवेश कर सकती हैं। यानी आने वाले दिनों में नये विदेशी एयर सेवाओं की भरमार हो सकती है।

यहीं नहीं बीमार और पैसे की तंगी में चल रही एयरलाइन कंपनियों को नई जिंदगी मिल सकती है। इस समय इंडिगो या गो एयर छोड़कर सभी एयरलाइन कंपनियां घाटे में चल रही है।

कुछ लोग तो यह भी बता रहे हैं कि एयरलाइन में शत प्रतिशत विदेशी निवेश की मंजूरी देने के पीछे महाराजा यानी एयर इंडिया से पीछा छुड़ाने की मंशा भी है। एयर इंडिया पिछले 9 वर्षों में 30 हजार करोड़ रुपये की घाटा दे चुकी है।

फार्मा सेक्टर में विदेशी निवेश की समीक्षा से पहले दो टर्म ग्रीन फील्ड और ब्राउन फील्ड को सम-हजय लेना जरूरी है।

ग्रीन फील्ड का मतलब है कि कोई विदेशी कंपनी हमारे यहां आकर नई फैक्ट्री लगाएगी और अपने उत्पाद उसी फैक्ट्री में बनाएगी जबकि ब्राउन फील्ड के तरत पहले से बनी बनाई फैक्ट्री और व्यवसाय में वह भागीदार बन जाएगी।

इन दोनों फील्ड मंे निवेश की सीमा और शतें अलग अलग है। ग्रीन फील्ड में 100 फीसदी और ब्राउन फील्ड में 74 फीसदी निवेश की सीमा तय की गई है।

लेकिन ब्राउन फील्ड में भी प्रावधान है कि चाहे तो सरकार से मंजूरी लेकर कोई भी विदेशी कंपनी भारतीय कंपनी का पूर्ण अधिग्रहण कर सकती है।

सरकार की आलोचना इसी प्रावधान को लेकर है। देश में लाखों छोटी बड़ी फार्मा कंपनियां पंजीकृत हैं। यह क्षेत्र उन उद्योगों में शामिल है जिसकी विकास दर 17 फीसदी से उपर है। दुनिया भर में हमारे फार्मा उद्योग का नाम है और देश से निर्यात होने वाली वस्तुओं में फार्मा सबसे प्रमुख है।

इस उद्योग की खासियत यह है कि कुछ हजार से लेकन करोड़ो के निवेश से यह व्यवसाय शुरू किया जा सकता है और इस पर करोड़ों लोग आश्रित हैं। इसी बात का खतरा है कि यदि विदेशी कपंनियों ने इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया तो न सिर्फ दवाओं के दाम में भारी ब-सजय़ोतरी होगी,बल्कि लाखों लोग बेरोजगार हो जाएंगी।

यही एक उद्योग हैं जहां बहुस्तरी रोजगार के अवसर हैं। रिसर्च से लेकर फाइनल पैकिंग और डिलीवरी तक दसियों हाथों को रोजगार मिल जाता है। लोगों को यह भी सम-हजय में नहीं आया कि आखिर सरकार ने पशुपालन, खुदरा व्यापार और खाद्य पदार्थों में 100 फीसदी विदेशी निवेश को मंजूरी क्यों दी।

पशुपालन विशुद्ध रुप से कृषि कार्य से जुड़ा व्यावसाय है। किसान खेती से पेट तो पशुपालन से जेब खर्च चलाते हैं। खुद केंद्र और राज्य सरकारों ने पशुपालन के जरिए किसानों को आर्थिक रूप से समृद्ध बनाने की योजनाएं शुरू की है।

यदि इसमे विदेशी कंपनयिां आकर बड़े बड़े दुग्धशालाएं शुरू कर देती हैं तो ना तो किसानों के लिए कोई और विकल्प बचेगा और ना बच्चों के लिए उचित मूल्य पर दूध मिलेगा। फिर देश भर मंे फैली दुग्ध सहकारी संस्थाओं का क्या होगा।

औंर अंत में सिंगल ब्रांड रिटेल मंे 100 फीसदी निवेश से सीधा एप्पल को पहुंचने वाला है। एप्पल पूरी दुनिया में इस्तेमाल हो चुके मोबाईल फोन को यहां री एसेम्बल करेगी और सस्ते मे बेचेगी।

केवल एप्पल को ही खुश करने के लिए रीटेल एफडीआई में घरेलू निर्माताओं से कम से कम 30 फीसदी कंपोनेंट खरीदने की अनिवार्यता को पांच वर्ष के लिए और आगे ब-सजय़ा दिया गया है यानी अब एप्पल आठ साल तक किसी भारतीय निर्माता से एक पेंच भी नहीं खरीदेगा।

भाजपा जब से सत्ता में आई है उसे लगता है कि उसके काॅडर में मोदी के किसी भी फैसले का विरोध नहीं होगा, चाहे वह उसके ती तय मानदंडों के विरुद्ध हों। ऐसी स्थिति है भी लेकिन जिस दिन इन फैसलों का सीधा असर जनत पर पड़ेागा तब शायद निर्विरोध नेता पर अंगुली जरूर उठेगी।