क्या बाजारू हो गया हमारा भारत रत्न?

Bharat_Ratna

अनिल विभाकर

हमारा भारत रत्न बाजारू हो गया है ? वह पहले भी बिकाऊ था ? क्रिकेट टीम में रहकर करोड़ों रुपए में नीलाम होता था ? दरअसल आदमी कभी नीलाम नहीं होता।

उसकी बोली नहीं लगाई जा सकती मगर युग बदला तो सबकुछ बदल गया। यह अलग बात है कि आदमी अब भी नीलाम नहीं होता। उसपर अब भी बोली नहीं लगाई जा सकती।

मगर हद तो यह है कि आजकल जिसपर जितने अधिक रुपए की बोली लगती है वह अपने को उतना ही अधिक गौर्वान्वित महसूस करता है।आप समझ गए होंगे कि बात क्रिकेटरों की हो रही है। नीलाम होने वाले ऐसे ही एक क्रिकेटर पर राहुल गांधी फिदा हो गए।

यह बात उस समय की है जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और मनमोहन सिंह प्रधनमंत्री थे। राहुल गांधी को सचिन तेंदुलकर भा गए। उन्हें लगा कि सचिन को भारत रत्न मिलना चाहिए। देश में ऐसा कोई नियम था नहीं कि खेल जगत के किसी खिलाड़ी को भारत रत्न दिया जा सके। मगर राहुल बाबा का अपना राज था।

राजा कुछ भी कर सकता है।वह संसद से पारित विधेयक की प्रति गुस्से में सरेआम फाड़ कर फेंक उसे बकवास बता सकता है। और प्रधानमंत्री की क्या हिम्मत कि उसे पास करा लें।

आपको याद होगा संसद से पास वह विधेयक राष्ट्रपति के पास उनकी मंजूरी के लिए पड़ा था जिसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आदरणीय राहुल गांधी के गुस्से और नाराजगी के कारण राष्ट्रपति के यहां से वापस मंगा लिया था।

सरकार में ऐसी हनक थी आदरणीय राहुल गांधी की। विदेशी खेल के खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने की राहुल के मन में उत्कट इच्छा थी।वे भारत के इस सर्वोच्च सम्मान को अपनी झोली की रेवड़ी समझते थे।

इसलिए राहुल ने सरकार के प्रावधानों में संशोधन कराकर सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से नवाज दिया। उन्हें खेल जगत के हाकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद का ख्याल बिलकुल नहीं आया। उन्होंने यह सोचा ही नहीं कि हाकी भारत का राष्ट्रीय खेल है और क्रिकेट विदेशी खेल है।

क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिसके खिलाड़ियों की महंगी बोली लगती है और उन्हें आपार धन मिलता है। यह खेल,खेल नहीं रहा। इस समय यह एक व्यवसाय की तरह हो गया है जिसमें बड़े पैमाने पर काले धन का इस्तेमाल हो रहा है। मगर क्या कीजिएगा राजकुमार का की इच्छा। वह जिसे चाहे रेवड़ी बांट सकता है।

उसने भारत रत्न को भी रेवड़ी समझ लिया और सचिन पर फिदा होकर उन्हें भारत रत्न से नवाज दिया। राहुल को क्या मालूम ध्यानचंद कौन है। राष्ट्रीय खेल तो वे देखते नहीं। राष्ट्रीय खेलों में उनकी कोई रुचि नहीं। इसे वे बिलकुल तवज्जो नहीं देते।

वैसे इसमें राहुल गांधी का कोई दोष नहीं। दरअसल उनके पुरखे भी भारत रत्न को अपनी बपौती ही समझते थे।प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए जवाहर लाल नेहरू ने 1955 में खुद भारत रत्न ले लिया था जबकि भरत रत्न के लिए नाम नियमानुसार प्रधानमंत्री ही प्रस्तावित करता है जिसे राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद नामित व्यक्ति को दिया जाता है।

मगर नेहरू जी ने सामान्य शिष्टाचार और नैतिकता को दरकिनार करते हुए इस सम्मान के लिए खुद का नाम प्रस्तावित कर दिया और यह सम्मान ले लिया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी 1971 में ऐसा ही किया था। उन्होंने भी प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भारत रत्न सम्मान लिया था।

भारत रत्न सम्मान की नैतिक अवधारणा का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है। इस संबंध में नैतिकता का एक दृष्टांत देना जरूरी है।

भारत के पहले शिक्षामंत्री अब्दुल कलाम आजाद का नाम जब इस राष्ट्रीय सम्मान के लिए चुना गया तो उन्होंने यह कहते हुए इसे लेने से इनकार कर दिया कि वे भारत रत्न चयन समिति में हैं इसलिए नैतिक रूप से उन्हें यह सम्मान नहीं लेना चाहिए।

मगर नेहरू और इंदिरा गांधी ने इस नैतिकता को धता बताते हुए खुद यह सम्मान लिया था। राहुल गांधी ने देश पर यह बड़ी कृपा की कि खुद यह सम्मान नहीं लिया मगर उन्होंने जिसे चाहा उसे दिलाया जरूर।

अफसोस कि आज भारत रत्न से सम्मानित वह व्यक्ति बाजारू बन कर पैसे के लिए विभिन्न कंपनियों के उत्पाद का विज्ञापन कर रहा है। हर कोई मानेगा भारत रत्न सम्मान की मर्यादा इससे मलिन हो रही है।

सचिन जब टीवी चैनलों पर किसी कंपनी के उत्पाद का विज्ञापन करते नजर आते हैं तो सहसा यह लगता है हमारे भारत रत्न की यह स्थिति हो गई कि उसे विज्ञापन के लिए बिकना पड़ रहा है? लगता है क्या हमारा भारत रत्न बाजारू हो गया? अब तक तो किसी भारत रत्न ने पैसे के लिए विज्ञापन नहीं किया।

सबने भारत रत्न सम्मान की प्रतिष्ठा का ख्याल रखा मगर सचिन इसका ख्याल नहीं रख रहे इतना तो कहा ही जा सकता है। जिस समय सचिन को भारत रत्न से सम्मानित किया गया था उस समय भी कई लोगोंं ने इसके औचित्य पर सवाल खड़े किए थे। लोगों का कहना था कि खेल जगत से ही किसी को भारत रत्न देना था तो पहला हक हाकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद का बनता था।

दरअसल भारत रत्न की पात्रता पर प्रश्नचिह्न लगने के कारण ही पिछले दिनों तन्मय भट्ट ने सचिन को लेकर एक फूहड़ कामेडी बनाई जिसमें भारत की स्वर सम्राज्ञी लता मंगेसकर को भी लपेट लिया।

वह कामेडी निश्चित तौर पर भर्त्सना करने योग्य है। अच्छे स्वाद में वह कामेडी बिल्कुल नहीं थी ।दुर्भाग्य से मीडिया ने उसे उछाल भी दिया जो कहीं से उचित नहीं था।उसकी अनदेखी करनी चाहिए थी।

मगर सोचने की बात यह है कि ऐसी स्थिति आखिर आई क्यों? पुरस्कार या सम्मान देते समय सरकार को उचित पात्रता का ख्याल रखना ही चाहिए। रेवड़ी की तरह पुरस्कार नहीं बांटे जाने चाहिए।

पद्म पुरस्कारों का भी यही हाल है। पात्रता का ख्याल रखे बिना थोक के भाव में पद्म पुरस्कार बांटे जाते हैं। इससे पुरस्कारों का सम्मान घटता है। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी थी तब इसी वजह से पद्मपुरस्कार देने पर रोक लगा दी गई थी।

भारत रत्न जैसे सर्वोच्च सम्मान देते समय यदि पात्रता का ख्याल नहीं रखा जाएगा तो हमारा भारत रत्न निश्चित तौर पर बाजारू हो जाएगा।जैसे अभी हो गया है। भारत रत्न को इस सर्वोच्च सम्मान का ख्याल रखना ही चाहिए।

 

लेखक हिंदी के वरिष्ठ कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं।राष्ट्रीय हिंदी दैनिक जनसत्ता के रायपुर संस्करण और हिंदी दैनिक नवभाारत के भुबनेश्वर संस्करण के संपादक रह चुके हैं । इसके अलाबा हिंदुस्तान के पटना संस्करण में दो दशक तक वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं । इस लेख में दिए गए बिचार उनके निजस्व हैं ।