क्या हमारे बैंक उबर पायेंगें ?

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डा. भरत झुनझुनवाला

वित्त मंत्री ने चिंता जताई है कि सरकारी बैंको द्वारा दिए गए लोन बड़ी मात्रा मे खटाई मे पड़ रहे है।

इससे सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर संकट मंडराने लगा है। याद करें कि 2008 मे अमरीकी बैंको पर संकट उत्पन्न हो गया था। उन्होंने बड़ी मात्रा मे लेहमन ब्रदर्स जैसी कंपनियों को लोन दिए थे। लेहमन ब्रदर्स इन लोन को वापस नही दे पाया था।

फलस्वरूप सम्पूर्ण अमरीकी अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। इसी प्रकार का संकट अपने देश मे भी उत्पन्न हो सकता है। इस भावी संकट से निबटने के लिए वित्त मंत्री ने सरकारी बैंको की पूँजी मे सरकारी निवेश बढ़ाने की योजना बनाई है।

जैसे मान लीजिए अमुक सरकारी बैंक द्वारा दिए गए लोन खटाई मे पड़ गए। इन लोन के रिपेमेंट से बैंक को अपेक्षित राशि प्राप्त नही हो रही है। इन लोन को देने के लिए बैंक ने जनता से फिक्स डिपाजिट लिए थे।

इन फिक्स डिपाजिट का समय पूरा हो गया। बैंक के सामने संकट पैदा हो गया। फिक्स डिपाजिट का भुगतान करना है परन्तु लोन का रिपेमेंट नही आ रहा है। जैसे दुकानदार ने उधार पर माल खरीद कर आपको उधार पर बेच दिया।

आप द्वारा दुकानदार को पेमेंट नही किया जाए तो दुकानदार के सामने संकट पैदा हो जाता है। इसी प्रकार बैंको को फिक्स डिपाजिट का पेमेंट करना होता है परन्तु दिए गए लोन का रिपेमेंट नही आने से संकट पैदा हो जाता है।

इस संकट से सरकारी बैंको को उबारने के लिए वित्त मंत्री ने उनकी पूँजी मे निवेश करने की योजना बनाई है। जैसे आपकी दुकान का कर्मचारी चोर है। अपने जान पहचान वाले ग्राहकों को वह माल सस्ता दे देता है।

दुकान को घाटा लग रहा है। ऐसे मे आप घर के जेवर बेचकर दुकान मे पूँजी लगाऐ तो इसकी क्या सार्थकता है? जरूरी है कि पहले कर्मचारी पर नियंत्रण स्थापित करें। घाटे के पूर्ति के लिए जेवर बेचना उचित नही है।

दुकान के विस्तार के लिए घर के जेवर बेचे जाऐ तो समझ आता है। इसी प्रकार हमारे सरकारी बैंक घाटे मे चल रहे है चूँकि इनके कर्मी अकुशल है अथवा भ्रष्ट है।

यदि किसी पाठक ने सरकारी बैंक से लोन लेने का प्रयास किया होगा तो उसे भ्रष्टाचार का अनुभव होगा। मैनेजरों ने दलाल नियुक्त कर रखे है जिनके माध्यम से घूस वसूली जाती है।

यही कारण है कि सरकारी बैंक घाटे मे चल रहे है। निजी बैंको की स्थिति तुलना मे अच्छी है। एक रपट के मुताबिक सरकारी बैंको द्वारा दिए गए 50 प्रतिशत ऋण ओवर ड्यू हो गए हैं यानी समय पर पेमेंट नही कर पा रहे है।

तुलना मे प्राइवेट बैंको द्वारा दिए गए केवल 20 प्रतिशत लोन ओवर ड्यू है। अर्थव्यवस्था की मंदी दोनो प्रकार के बैंको को बराबर प्रभावित करती है। परन्तु सरकारी बैंकों की लचर व्यवस्था के कारण ओवर ड्यू ज्यादा है।

सरकारी एवं प्राइवेट बैंको के मैनेजमेंट मे मौलिक अंतर है। सरकारी बैंक के अधिकारियों को बैंक के मुनाफे या घाटे से कम ही सरोकार होता है। उनके बैंक को घाटा लगे तो भी वेतन पूर्ववत बने रहते है।

उन्हे मामूली सजा दी जा सकती है जैसे ट्रान्सफर कर दिया जाए। तुलना मे प्राइवेट बैंक के मालिको को स्वयं घाटा लगता है। बैंक को घाटा लगा तो उनके शेयरों के दाम गिर जाते हैं। यह मौलिक समस्या सभी सरकारी कंपनियों मे विद्यमान है।

लेकिन इस अकुशलता के बावजूद विशेष परिस्थितियों मे सरकारी कंपनियाँ बनाई जाती है। जैसे स्वतंत्रता के बाद देश मे स्टील के उत्पादन को भिलाई जैसी कंपनियाँ लगाई गई चूँकि उस समय प्राइवेट उद्यमियोें मे स्टील कंपनी लगाने की क्षमता नही थी।

इसी आधार पर इंदिरा गांधी ने सत्तर के दशक मे सरकारी बैंको का राष्ट्रीयकरण किया था। उन्होंने सोचा कि प्राइवेट बैंको द्वारा केवल बड़े उद्यमियों को लोन दिए जा रहे है। आम आदमी को लोन देने मे ये रुचि नही लेते है।

इसलिए इनका राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसके बाद ग्रामीण क्षेत्रो मे बैंको का विस्तार भी हुआ। परन्तु कुछ ही समय बाद पुरानी स्थिति कायम हो गई।

सरकारी बैंको ने ब्रांचंे गाँव मे अवश्य स्थापित की परन्तु इनका मुख्य कार्य गाँव की पूँजी को सोख कर शहर पहुँचाना हो गया। देश की ग्रामीण ब्रांचों मे 100 रुपए जमा होते है तो केवल 25 रुपए के लोन इस क्षेत्र मे दिए जाते है।

शेष 75 रुपए मुम्बई के माध्यम से बड़े उद्यमियो को पहुँचा दिए जाते है। राष्ट्रीयकरण का अंतिम परिणाम सुखद नही रहा है।

गरीब को लोन देने का मुख्य उद्देश्य पूरा नही हुआ बल्कि उद्यमियों को दिए जा रहे लोन की गुणवत्ता मे गिरावट आई चूँकि अब लोन अकुशलता एवं भ्रष्टाचार से चलित होते है।

मूल समस्या है कि बैंक व्यवस्था को आम आदमी के पक्ष मे कैसे चलाया जाए। इस कार्य को दो स्तर पर सम्पन्न करना होगा। सर्वप्रथम आम आदमी द्वारा लोन की मांग बढ़ाने की जरूरत है।

कहावत है कि घोड़े को पानी तक ले जाना संभव है परन्तु पानी पिलाना संभव नही है। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्र मे ईमानदार मैनेजर बैंक खोल कर बैठा हो तो भी निरर्थक है यदि ग्रामीण लोगों का धंधा नही चल रहा हो और उनके द्वारा लोन लेने की मांग ही न की जाए।

आज हमारी अर्थव्यवस्था आटोमेटिक मशीनो की तरफ बढ़ रही है। आम आदमी के रोजगार घट रहे है। इन रोजगार को संरक्षण देना होगा। साथ ही रिजर्व बैंक को सख्ती करनी होगी।

रिजर्व बैंक ने व्यवस्था बना रखी है कि बैंको द्वारा दिए गए ऋण का एक हिस्सा छोटे उद्योगों एवं कृषि को दिया जाए।  परन्तु इसे सख्ती से लागू नही किया जा रहा है।

इस व्यवस्था को लागू करने के साथ-साथ सभी सरकारी बैंको का निजीकरण कर देना चाहिए। तब इनमे व्याप्त अकुशलता तथा भ्रष्टाचार से देश को मुक्ति मिल जाएगी।

इनके घाटे, अकुशलता एवं भ्रष्टाचार की भरपाई के लिए वित्त मंत्री को पूँजी उपलब्ध नही करानी पड़ेगी। बल्कि इनके निजीकरण से भारी मात्रा मे धन भी मिलेगा जिनका उपयोग अन्य जरूरी कार्यों मे निवेश के लिए किया जा सकता है।

Bharat-Jhunjhunbala

डा. भरत झुनझुनवाला देश के जानेमाने स्तम्भकार हैं । इस लेख में दिए गए बिचार उनके निजस्व हैं ।