नीतीश की शराबबंदी पर लालू की ताड़ी भारी

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नीतिश कुमार

विक्रम उपाध्याय

गोपाल गंज में 14 लोग जहरीली शराब पीकर अपनी जान गवां  बैठे। इस दर्दनाक घटना पर मातम मनाने वालों में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव भी हैं।

पर मातम मनाते मनाते मनाते वह नीतीश की नशाबंदी को ही धत्ता बता गए और खुले आम लोगों को यह सलाह दे गये कि शराब की जगह ताड़ी पीओ।

उनके ही शब्द यहां हू बहू रखते हैं- ‘ शराबबंदी के बाद अब जो भी मिलेगा जहरीला ही मिलेगा। ऐसी घटना से सबक लें, जरूरी हो तो ताड़ी पीये’।

अब  कोई नीतिश से पूछे कि उन्होंने शराब बंदी की है और नशाखोरी को इजाजत दी है क्या? यदि ऐसा हुआ तो बिहार के लोग भी शराब के विकल्प के रूप में ताड़ी ही नहीं कई और नशा के तत्व अपना लेंगे। फिर न किसी का घर बचेगा और न किसी का जीवन।

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लालू प्रसाद यादव

ताड़ी और बिहार की राजनीति की आपस में काफी मेल है। जब अप्रैल 2016 में नीतिश कुमार ने शराब के साथ साथ ताड़ी की बिक्री पर भी रोक लगाई तो मामला एक दिन में गरम हो गया।

चूंकि ताड़ी उतारने और बेचने वाले अति पिछड़ी जाति के लोग हैं तो उस वर्ग की राजनीति करने वाले सहज ही मैदान में उतर गए।

इस मामले में कोई बड़ा घाटा न हो जाए इसलिए नीतीश ने अपने ही फरमान को सुधार कर पेश किया।

पहले यह ऐलान किया कि ताड़ी उतारने और बेचने वालों को भी जेल भेज देंगे, फिर भूल सुधार करते हुए कहा कि कोई अपने लिए ताड़ी उतारता है या पीता है तो उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी।

लालू प्रसाद यादव ने तब तो कुछ नहीं बोला लेकिन वह इस बात पर कुनमुनाए कि जिस ताड़ी की ब्रिकी पर उन्होने मुख्यमंत्री रहते हर प्रकार का टैक्स खत्म कर दिया था, उसी ताड़ी पर रोक लगाने में उनकी भागीदारी कैसे हो सकती है।

हम के नेता और हाल तक लालू और नीतीश को गाली देने वाले जीतनराम मांझी ने ताड़ी पर रोक को लेकर खुली मुखालफत की। उन्होंने यहां तक कह दिया कि ताड़ी पीना स्वास्थ्यवर्द्धक है और इससे हजारों लोगों की रोजी -रोटी जुड़ी हुई है।

मांझी ने कहा कि वह खुद ताड़ी पी कर नीतीश के इस तुगलकी फरमान को रोकेंगे। बस क्या था धीरे धीरे दलित नेताओं की आवाज ताड़ी पर प्रतिबंध के खिलाफ बुलंद होती गई और नीतीश का हौसला पस्त होता गया।

वह लालू प्रसाद यादव का दबाव झेल नहीं पाए और फिर 30 जुलाई 2016 को उन्होंने ताड़ी को प्रतिबंध मुक्त कर दिया। अब बिहार में ताड़ी पीने और बेचने पर कोई पाबंदी नहीं है।

लेकिन ताड़ी को लेकर बहुत सारी भ्रांतियां भी हैं। जिसे शराब बंदी को हर हाल में लागू करने पर आमादा नीतीश दूर करना भी नहीं चाहते।

मसलन ताड़ी नशीला पदार्थ है कि नहीं। जी हां ताड़ी में भी अल्कोहल होता है और इसकी मात्रा 4 फीसदी से 40 फीसदी तक होती है। जो लोग नशा के लिए ताड़ी पीते हैं वे सुबह की ताड़ी के बजाय उसे दोपहर बाद और धूप में फर्मेंटेशन कराने के बाद।

तड़बने में नशेड़ियों को लेकर कई कहानिया लिखी जा चुकी हैं।  जो लोग यह कहते हैं कि ताड़ी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होती है,वे यह भी कहते सकते हैं कि टू पैग वाइन ए डे, कीप डाॅक्टर अवे।

जिस तरह शराब से दसियों बीमारियां हो सकती हैं उसी तरह ताड़ी के भी कई नुकसान है। जैंसे ताड़ी में मौजूद अलकोहल लीवर को संक्रमित कर सकता है। गर्भवती महिलाओं को तो इससे गर्भपात होने का भी खतरा होता है।

ताड़ी पीने से मस्तिष्क संबधी बीमारियां हो सकती हैं और इसे स्नायू में खींचापन महसूस हो सकता है।

इससे लीवर में वसा जमा हो सकती है और लीवर फैटी हो सकता है। ताड़ी खून के थक्के को जमने देने में परेशानी पैदा करती है जिससे अधिक रक्तस्राव हो सकता है।

यह हªदय की नसों को कमजोर करती है जिससे दिल का दौड़ा पड़ने का भी खतरा पैदा हो सकता है। ताड़ी की तारीफ करने वाले इससे इनकार नहीं कर सकते।

अब बात बिहार में नशाबंदी की करते है। नशाखोड़ी एक सामाजिक बुराई है। लेकिन समाज को बिगाड़ने के लिए शराब इकलौती कारण नहीं है। इसलिए नशाखोरी को जिद से नहीं, जिंदादिली से दूर की जा सकती है।

शराब बंदी सामाजिक सुधार का अंतिम परिणाम नहीं है। सामाजिक बुराइयां और भी हजारों हैं, उन पर भी उतनी ही गंभीरता से चोट की जानी चाहिए। पर बिहार में ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है।

लगता है नीतीश कुमार अपनी पांच साल की उपलब्धियां जब 2019 में पेश करेंगे तो संभवतः शराबबंदी ( नशाखोड़ी नहीं) शराब बंदी और शराब बंदी को पेश करेंगे।

इतिहास गवाह है कि सामाजिक बुराइयों को दूर करने वाले दर्जनों नेता ऐसे भी हैं जो शराब बंदी के बजाय लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाकर अपने लिए राजनीतिक मुकाम बना पाए।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू लंदन के अच्छे रेस्तरां में अच्छा खाने और वाइन पीने के बड़े शौकीन थे, लेकिन वे अपनी स्टेट्समैनशिप और दूरदर्शिता के लिए इतिहास में हमेशा जाने जाएगंे।

नेहरू ही क्यों संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर भी वाइन और मछली के शौकीन थे वह भी शराब बंदी के हक में थे लेकिन जबर्दस्ती नहीं, लोगों को जागरूक करके।

वेटरन ज्योति बसु के बारे में कहा जाता है कि शाम को नारियल पानी के साथ वोदका काम था उनका रोजका, लेकिन ज्योति दा जाने जाते हैं बंगाल के उद्धारक के रूप में।

शराब के साथ संस्कृति का भी बड़ा गहरा नाता है। बिहार से लाखों मजदूर या पढ़े लिखे जो नौजवान पलायन कर बाहर जाते हैं वे वहां की संस्कृति के साथ भी रच बस जाते हैं।

दिल्ली और मुंबई में बसे लाखो बिहारी वहां के शाम की संस्कृति हम प्याला हम निवाला से कहां दूर रह पाएंगे। ये लोग अब लौट कर बिहार जाएंगे तो एक दिन में साधु नहीं बन पाएंगे।

यह ठीक है कि शराब शरीर बर्बाद करती है, घर बर्बाद करती है और लाखों लोगांे का जीवन भी बर्बाद करती है।

पर इस बर्बादी की रोक के लिए सिर्फ कानून का डंडा कामयाब नहीं हो सकता। जागरूकता के साथ साथ सुविधाएं भी चाहिए। शाम शराब में ना बिते इसके लिए शाम खुशनुमा बनाने के लिए और भी विकल्प हो सकते हैं।

पर बिहार में सिनेमा के अलावा मनोरंजन का कोई साधन नहीं। बाहर घूमने फिरने लायक आमदनी नहीं। पार्क और मनोरंजन स्थल पर सुरक्षा नहीं। बंद घर में रहे तो बिजली भी नहीं।

इसलिए बिहार में सुधार शराब से शुरू और शराब पर खत्म की मानसिकता पर भी रोक लगनी चाहिए।