अटल जी को जैसा मैंने देखा
अटल बिहारी वाजपेई और उनके समर्थकों के बीच वही संबंध है, जो भगवान और भक्तों का होता है. भक्तों की जैसी श्रद्धा होती है भगवान वैसे ही दिखते हैं . मेरा भी अपना व्यक्तिगत अनुभव अटल जी के बारे में है.
1992 से पहले मैं पांचजन्य का उपसंपादक बन गया था. यह वह समय था , जब राम जन्मभूमि आंदोलन अपने चरम पर था. भाजपा के तमाम बड़े नेता ,राम जन्मभूमि आंदोलन से सीधे जुड़े थे. बाजपेई जी राम जन्मभूमि के समर्थन में तो थे, लेकिन उग्र आंदोलन से जरा दूर थे .
6 दिसंबर 992 को बाबरी मस्जिद ढहा दी गई. कारसेवकों में भले ही उल्लास था लेकिन भाजपा का पूरा नेतृत्व जैसे सकते में था . यह तय नहीं हो पा रहा था कि भाजपा इस पर क्या बोले. आडवाणी ,बाजपेई समेत लोकसभा में उस समय 120 सांसद थे .
कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दल भाजपा के प्रति बेहद आक्रामक हो चुके थे. आखिर संसद को फेस करने का साहस वाजपेई ने दिखाया .
उन्होंने लोकसभा में कहा कि भाजपा किसी विखंडन की राजनीति नहीं करती है ,विध्वंस का उन्हें भी दुख है , लेकिन सदियों से यदि जन भावनाओं को कुचला जाए तो उसकी परिणति यही हो सकती है . बाजपेई के इन वाक्यों ने भाजपा में नया जोश भर दिया .
राम जन्मभूमि आंदोलन के कारण पार्टी में आडवाणी का बर्चस्व था , लेकिन वाकपटुता और समझ के कारण वाजपेई तभी सबके मार्गदर्शक बने. हलाकि उन दिनों कुछ अडवाणी समर्थकों ने वाजपेई के गांधियन सोशलिज्म को बेकार का आईडिया बता कर काफी समय तक पाञ्चजन्य के पन्नों से दूर रखा .
इस बीच पाञ्चजन्य में हमारे अनन्य मित्र महाराज कृष्ण भारत, जो कश्मीर से निर्वासित होकर दिल्ली में हमारे साथ नौकरी कर रहे थे .उन्होंने कश्मीर की घटनाओं और संवेदना पर एक काव्य ग्रंथ टच डाला उसका नाम था फिरन में छुपाए तिरंगा. जब काव्य संग्रह तैयार हुआ तो विचार किया गया किे इसके प्राक्कथन को लिखने की विनती किससे की जाए .
पाचनंजन्य के संपादक तरुण जी ने कहां कि वाजपेई जी यदि तैयार हो जाएं तो आनंद ही आ जाए. बाजपेई जी से मिलने मैं, महाराज कृष्ण भरत और उनकी धर्मपत्नी उनके निवास स्थान पर पहुंच गए.
उनके सामने विषय रखा और उन्होंने भी दो चार पंक्तियां पढ़ने के बाद सहज ही दो शब्द लिखने के लिए तैयार हो गए. वाजपेई जैसा व्यक्तित्व एक नए अनजान कवि के लिए अपनी कलम चलाएं और उसमें खुशी की अनुभूति व्यक्त करें ऐसा विशाल हृदय और कहां मिल सकता है.
वाजपेई जी जब प्रधानमंत्री बने 1999 में तो दूसपी मुलाकात उनके निवास पर हुई. अवसर था वीर सावरकर पर एक कार्यक्रम का आयोजन . इस कार्यक्रम में तब के संघ प्रमुख के सुदर्शन मुख्य अतिथि थे.
सुदर्शन जी का वीर सावरकर पर 40 मिनट का भाषण हुआ . इस कार्यक्रम में बीजेपी के तमाम बड़े नेता उपस्थित थे . जब बात आई वाजपेई जी के बोलने की तो उन्होंने मंच से बहुत ही कम शब्दों में वीर सावरकर को याद करते हुए सब का धन्यवाद ज्ञापन किया.
कार्यक्रम के पश्चात जब सब लोग चाय की चुस्की ले रहे थे तभी विजय कुमार मल्होत्रा ने अटल जी से पूछा -आज आपने भाषण नहीं दिया? वाजपेई जी मुस्कुराते हुए बोले- आज सुदर्शन जी हमारे मेहमान थे हमें उन्हीं को सुनना चाहिए था और इतना कह कर आगे निकल गए .
आज की राजनीति में कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो भरी सभा में मंच पर चढ़े और अपने ज्ञान झाड़ने के बजाए लोगों के प्रति कृतज्ञता जाहिर करें ऐसे कृतज्ञ पुरुष श्री थे वाजपेई.
2004 के चुनाव की घोषणा हो चुकी थी ,वाजपेई चुनाव प्रचार के लिए निकल पड़े थे . इसी क्रम में 10-15 पत्रकारों को लेकर हेलीकॉप्टर के जरिए मथुरा जाने का कार्यक्रम था .उसमें मैं भी शामिल था .
तय समय पर सब लोग भाजपा कार्यालय पर लगभग 8:00 बजे सुबह पहुंच गए थे , लेकिन उस दिन मौसम बहुत खराब था .सुबह से ही बारिश हो रही थी .9:30 बजे यह संदेश आया कि इस मौसम में हेलीकॉप्टर उड़ान नहीं भर सकता, इसलिए प्रधानमंत्री का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया .
हम सभी पत्रकार अभी मायूस हुए ही थे कि प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार अशोक टंडन आएं आते ही उन्होंने कहा -प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई आप सब लोगों के साथ 7 आरसी आर में नाश्ता करना चाहते हैं .
पत्रकारों को उनकी मन की मुराद मिल गई . फटा-फट गाड़ी में लदकर बाजपेई से मिलने उनके आवास पहुंच गए दो-तीन मिनट के इंतजार के बाद ही प्रधानमंत्री वाजपेई अपने कक्ष में पहुंचे. सबको अपने सामने नाश्ता परोसा फिर औपचारिक बातचीत शुरू हुई .
संयोग से मैं उनके ठीक बगल में बैठा था जब मेरा परिचय हुआ और मैंने बताया कि मैं राजस्थान पत्रिका में काम कर रहा हूं तो उन्होंने खुश होकर कहा अच्छा आप राजस्थान पत्रिका में काम करते हैं मैंने कहा जी -फिर सभी लोगों के बारे में उन्होंने पूछताछ शुरू की .
जब वापस कार्यालय पहुंचा तो लंबे समय से काम करने वाले अपने सहयोगी से यह पूछा कि वाजपेई जी आज राजस्थान पत्रिका से इतना लगाव क्यों रखते है तब मुझे ज्ञात हुआ कभी राजस्थान पत्रिका में विदेश मंत्रालयको कवर करने वाली एक पत्रकार वाजपेई जी की चहेती हुआ करती थी .मुझे वाजपेई जी का वह मिलनसार स्वभाव आज भी याद है
राजस्थान पत्रिका में रहने के दौरान ही एक बार प्रधानमंत्री वाजपेई पर विशेषांक निकालने का निणर्य हुआ. उसमें मुझे भी कुछ लोगों के अपने निजी अनुभव लिखने का दायित्व मिला.
मैंने पता किया तो मालूम चला कि लखनऊ में लालजी टंडन उनके बहुत करीबी हुआ करते थे. लालजी टंडन ने बताया कि वैसे तो वाजपेई जी के बारे में सभी बातें सामने आ चुकी हैं लेकिन एक बात कम लोगों को मालूम है कि वह लस्सी पीने के बहुत शौकीन थे और वे अक्सर अपने सहयोग से बाजी लगाते थे कि कौन कितनी लस्सी पी सकता है और अक्सर वही जीत जाया करते थे .
कभी बाजपेई के सेक्रेटरी रहे जे पी माथुर ने मुझे बताया कि बाजपेई संगठन के प्रति पूरी तरह समर्पित नेता थे . उन्होंने बताया कि जब पहली बार लोकसभा जीत कर आए तो उन्हें वेतन के रूप में ₹13 मिले .
वाजपेई ने जेपी माथुर से कहा कि भाई यह तेरह रुपया क्या करोगे . ऐसा करो ₹3 अपने खर्च के लिए रख लो और ₹10 कोष में जमा कर दो . वाजपेई हमेशा सादगी में रहे और उसका कायल लोगों को बना दिया.
वाजपेई का स्टेट्समैनशिप तब देखने को मिला जब मनमोहन सिंह के खिलाफ लोकसभा में मत विभाजन हो रहा था . वाजपेई पैर से चल फिर नहीं पा रहे थे ,लेकिन सदन में उपस्थित होकर भाजपा के लिए मतदान करने का उन्हें निर्णय लिया .सोमनाथ चटर्जी तब लोकसभा अध्यक्ष थे वाजपेई जी ने उनसे आग्रह किया कि मैं लाचार स्वरुप में सदन के भीतर नहीं आ सकता .
इसलिए मेरे मतदान की व्यवस्था गैलरी में की जाए .सोमनाथ दादा ने ठीक वही व्यवस्था की और जब तक यह सुनिश्चित नहीं कर लिया वाजपेई जी आ चुके हैं और मतदान का बटन उनके हाथ पहुंच चुका है तब तक लोकसभा में मतदान नहीं कराया .
वाजपेई जी सबकेमार्गदर्शक ही नहीं रहे ,बल्कि उनका जीवन उनकी शैली और उनका दर्शन शिक्षा सबके लिए प्रेरणा स्रोत बने रहेंगे