इस्लामिक बैंक, क्यों और किसके लिए

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विक्रम उपाध्याय

देश में सरिया कानून के तहत चलने वाले बैंक यानी इस्लामिक बैंक खोले जाने पर सरकार कितनी गंभीर है यह तो पता तब चलेगा जब संसद में इस संबंध में कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाएगा, लेकिन वित्तीय क्षेत्र में इसे लेकर तैयारी जोरों पर है और उम्मीद की जा रही है भारत में इस्लामिक बैंक का पहला कदम गुजरात के अहमदाबाद में पड़ने वाला है।

यह उम्मीद या चर्चा अकारण नहीं है, बल्कि जेद्दा स्थित इस्लामिक डेवलपमेंट बैंक (आईडीबी)ने यह ऐलान कर दिया है कि वह अहमदाबाद में अपनी शाखा खोलने जा रहा है।

आईडीबी के इस ऐलान को प्रधानमंत्री मोदी के करीबी मुस्लिम नेता सरेश जफरवाला ने भी की है, बल्कि ंउन्होंने तो यह भी कहा कि इस्लामिक बैंक भारत के लोकतंत्र को और मजबूत करेगा।

दरअसल इस्लामिक बैंक भारत में खोलने को लेकर सुगबुगाहट काफी वर्षों से चल रही है।

केरल में तो कुछ लोगों ने सरिया के आधार पर नन बैंकिंग वित्तीय कंपनी बनाकर चलाई भी है, लेकिन इसी वर्ष अप्रैल में जब प्रधानमंत्री ने सउदी अरब का दौरा किया तो पहली बार कोई गंभीर बात हुई और वहीं तय किया गया कि जेद्दा स्थित इस्लामिक डेवलपमेंट बैंक और भारत के एक्जिम बैंक के बीच कारोबारी संबंध बनेगा और उस संबंध को और आगे बढ़ाने के लिए आईडीबी गुजरात में अपना बैंक खोलेगा।

हालांकि इस इस्लामिक बैंक को खोलने के पीछे मुख्य मकसद सेवा बताया गया और यह घोषणा भी की गई कि आईडीबी गुजरात में बैंक खोलने के साथ साथ सामाजिक सेवा के तहत एम्बुलेंस सेवाएं भी प्रदान करेगा।सुरेश जफरवाला ने इस घोषणा को गुजरात के विकास से जोर दिया।

अब यह प्रधानमंत्री के सउदी दौरे का असर हो या फिर आरबीआई के निवर्तमान गवर्नर रघुराम राजन की अपनी सोंच कुछ महीने पहले ही जारी आरबीआई ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा है कि भारत को भी ग्लोबल इस्लामिक फाइनेंस क्लब से जुड़ जाना चाहिए और इसके लिए हमें जल्दी ही आवश्यक कानूनी ढांचा तैयार करना चाहिए।

यानी संसद से इस संबंध में एक कानून पास किया जाना चाहिए कि भारतीय लोकतंत्र ढांचे में मजहबी कानून के आधार पर चलने वाली बैंकिंग व्यवस्था स्थापित हो सके।

जो लोग इस्लामिक बैंक की स्थापना भारत में करने का अभियान चला रहे हैं उनका तर्क है कि सरिया मानने वाले अधिकतर लोग ब्याज के आधार पर चलने वाली बैंकिंग व्यवस्था से बाहर हैं और इसलिए उन्हें बैंकिंग सिस्टम का हिसा बनाने के लिए जरूरी है कि देश में इस्लामिक बैंक की स्थापना की जाए।

ये लोग यह तर्क भी देते हैं कि देश में 18 करोड़ मुसलमान हैं, उन्हें उनके मजहब के आधार पर बैंक से जोड़ने में कोई नुकसान नहीं है।

इसके पहले वर्ष 2015 में भी रिजर्व बैंक ने यह सुझाव दिया था कि यदि परम्परागत बैंक यह चाहें तो अपनी शाखाओं में अलग से इस्लामिक बैंकिंग विंडों खोल सकते हैं जहां वे सरिया कानून के अनुसार ब्याज मुक्त लेन देन कर सकते हैं।

यही नहीं यह भी सुझाव दिया गया कि मुसलमानों को इस्लामिक फंड के तहत सहायता प्रदान करने के लिए अलग से गैर बैंकिंग चैनल्स भी खोले जा सकते हैं।

इस तरह के कुछ फंड केरल और आंध्रप्रदेश में खोले भी गए। कोच्ची स्थित अल्टरनेटिव इनवेस्टमेंट एंड क्रेडिट लिमिटेड तथा चेरामन फाइनेंशियल सर्विसेज सरिया कानून के तरत ही चलाये जा रहे हैं।

टाटा ने भी इथिकल फंड के नाम पर सरिया आधारित म्युचुअल फंड जारी किया था। लेकिन पहली बार ऐसा हुआ है कि देश में विधिवत इस्लामिक बैंक खोलने पर विचार किया जा रहा है और इसके लिए एक विशेष कानून का ढांचा तैयार किया जा रहा है।

यह कहना मुश्किल है कि यह सरकार इस तरह का कोई विधेयक इस समय संसद में लाएगी, लेकिन इसके लाने की तैयारी अंदर अंदर चल तो रही है।

सरकार का विदेशी निवेश पर अत्यधिक जोर होने के कारण यह माना जा रहा है कि इस्लामिक बैंक की अनुमति देकर अरब देशों से बहुत बड़ी मात्रा में इस्लामिक फंड प्राप्त करने के लालच में नया कानून बनाया जा सकता है।

मीडिल ईस्ट साउथ ईस्टएशिया के इस्लामिक देश भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में भारी निवेश कर सकते हैं।

कुछ लोग यह भी तर्क दे रहे हैं कि इस्लामिक फंड से देश का विकास सस्ते में हो सकता है, क्योंकि सरिया कानून के तहत आने वाले फंड पर कोई ब्याज नहीं देना होगा और लाभ में हिस्सेदारी देना कोई घाटे का सौदा नहीं होगा।

इसके कारण हमें बिना किसी ब्याज के लंबे समय तक के लिए फंड मिल सकता है। यहीं नहीं मुस्लिम किसानों, बुनकरों और छोटे मोटे रोजगार करने वालों को भी बिना ब्याज के पैसे मिल सकते हैं जिससे वे कर्ज के चक्र से मुक्त हो सकते हैं।

क्या वाकई देश में इस्लामिक बैंक खुलने से देश का भला होगा। भारत के मुसलमानों का बहुत लाभ होगा या हमारे विकास में इस्लामिक बैंक कोई बड़ी भूमिका निभायेंगे।

अध्ययन से तो ऐसा नहीं लगता। यो मो मोहम्मद साहब के साथ ही सरिया कानून को लागू होना मानते हैं, लेकिन यह जानकर ताजुब्ब होता है कि पहला विधिवत इस्लामिक बैंक खुला ही 1975 में। वो भी दुबई में दुबई इस्लामिक बैंक के नाम सें।

पूरे विश्व में इस समय लगभग 300 इस्लामिक बैंक हैं जिनकी कुल संपत्ति लगभग दो अरब डॉलर के बराबर है। यानी विश्व के विकास में इतनी पूंजी की कोई बड़ी भूमिका नहीं हैं।

यदि इस्लामिक बैंक वाकई मुसलमानों या मुस्लिम देशों का कोई भला करता तो मुस्लिम देश में ही उनकी उपस्थिति इतनी नगण्य नहीं होती।

सउदी अरब को छोड़ दे तो बाकी मुस्लिम देशों में भी वेसी ही बैंकिंग व्यवस्था चल रही है जैसे सब जगह चलती है। यानी जमा पर देय ब्याज और कर्ज पर ब्याज की वसूली के आधार पर।

विश्व की पूरी इस्लमामिक बैंकिंग व्यवस्था में सउदी अरब की हिस्सेदारी 31.70 फीसदी है तो मलेशिया की 16.70 फीसदी। इन दोनों देशों के अलावा किसी और मुस्लिम देश में इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था कोई बड़ी व्यवस्था नहीं है।

हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान तो इस्लामिक बैंंिकंग व्यवस्था में हिस्सेदारी सबसे कम यानी 1.20 फीसदी ही रखता है।

देश के बंटवारे के तुरंत बाद मोहम्मद अली जिन्ना ने स्टेट बैंक आफ पाकिस्तान का गठन किया। आज स्टेट बैंक आफ पाकिस्तान की वहीं भूमिका है जो हमारे यहां रिजर्व बैंक की है।

दूसरी ओर इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था को लेकर यह आशंका है कि इस बैंकिंग व्यवस्था ने आतंकवाद को पनपाने में पूरी मदद की है।

इसी साल फरवरी में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने इस्लामिक फायनेंस एंड एंटी मनी लॉंड्रिग एंड कमबैटिंग दि फायनेंस आफ टेरोरिज्म पर एक वर्किंग पेपर जारी किया जिसमें आईएमएफ कहता है- मनी लॉड्रिग और आंतकवाद को वित्त सहायता के मद्देनजर परंपरागत वित्त व्यवस्था में जो जोखिम है वह पूरी तरह से ज्ञात है और संबंद्ध प्राधिकार इसे ठीक से समझते हैं, किंतु इस्लामिक वित्त से जुड़े इस जोखिम के बारे में किसी के पास कोई समझ नहीं है।

कुछ जोखिम तो परंपरागत वित्त व्यवस्था जैसे ही हो सकते हैं, लेकिन इसके अलग जोखिम भी हो सकते हैं। ऐसा इसलिए कि इस्लामिक वित्त उत्पाद बड़े जटिल है और इस्लामिक वित्तीय संस्थानों ओर उनके ग्राहकों के बीच संबधों की सही सही जानकारी नहीं मिल सकती।

चूंकि सरिया कानून यह कहता है कि किसी को भी जमा पर या कर्ज पर ब्याज लेना गुनाह है इसलिए इस्लामिक बैंक की मुख्य पूंजी दान यानी डोनेशन के जरिये आती है।

यह दान या डोनेशन देने वाला व्यक्ति कई बार अपना नाम और अपनी पहचान छुपाये रखता है। कई बार यह सिद्ध हो चुका है कि इस्लामिक बैंक को स्थापित करने या उसके कारोबार को बढ़ाने के लिए डोनेशन देने वालों में बड़े बडे आंतकवादी समूह हैं।

इस डोनेशन को इस्लामिक भाषा में जिहाद मनी भी कहा जाता है।

अल राझी बैंक, अल शमाल इस्लामिक बैंक, नेशनल कर्मिशयल बैंक अरब बैंक, इस्लामी बैंक बांग्लादेश लिमिटेड, बैंक मेल और बैं सदेरात जैसे इस्लामी बैंक में डोनेशन देने वालों में अलकायादा जैसे कई आतंकवादी संगठनों का नाम आ चुका है और इन्हीं इस्लामी बैंकों के जरिये इजरायल, अमेरिका, फ्रांस और यहां तक के भारत में आतंकवादी हमले के लिए फंड के इंतजाम किये जाते रहे हैं।

यह भी सही है कि इसके बावजूद इस्लामी बैंकों की विकास दर 15 फीसदी हैं।

इस्लामी देशों के अलावा ब्रिटेन, हांगकांग और अमरीका जैसे विकसित देशों में भी इस्लामी बैंक खुल चुके हैं। लेकिन ये बैंक नाम के लिए हैं। कुछ हजार लोगों के लिए है ओर उस पर भी वहां की सरकारें कड़ी नजर रख रही हैं।

क्या भारत में यह प्रयोग किया जा सकता है कि इस्लाम के नाम पर सरिया आधारित बैंकिंग व्यवस्था लागू की जा सके। सवाल कुछ पेट्रो डॉलर का नहीं है देश की धर्मनिरपेक्षता पर भरोसा और लोकतंत्रीय व्यवस्था के प्रति सामूहिक प्रतिबद्धता की भी है।