मौसमी रोग का आयुर्वेदिक उपचार

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वैदराज बलदेव कुमार

सृष्टि के नैसर्गिक परिवर्तन का मनुष्य के शरीर, पाचनशक्ति एवं मानसिकशक्ति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए अगर अपने आहार-विहार का मौसम के साथ तादात्म्य बनाकर चला जाए तो व्यक्ति अनगिनत ऋतुजन्य रोगों से बच सकता है। आयुर्वेद में छः ऋतुओं का उल्लेख है।

पाणिनीकृत अष्टाध्यायी मे भी छः ऋतुओं का वर्णन है। इसलिए अष्टांग संग्रहकार ने बताया है कि ऋतुओं के अपने-अपने विशिष्ट लक्षणों यथा शीत, वर्षा और उष्णताजन्य दोषों के प्रतिकार करने का नाम ऋतुचर्या है अर्थात् ऋतु के प्रभाव के अनुसार निश्चित आहार-विहार का सेवन करना ही ऋतुचर्या है ।

इस तरह का आचरण ऋतु-अनुकूलन के लिए शरीर को तैयार करता है। जैसे-जैसे अनुकूलन क्षमता बढ़ती है वैसे-वैसे रोग प्रतिकारक शक्ति भी बढ़ जाती है फलतः ऋतु परिवर्तनजन्य रोग नहीं होता या होता है तो सरलता से उसका शमन हो जाता है।।

चरकसंहिता में सूर्य के मार्ग के अनुसार वर्ष को दो अयनों में विभाजित किया गया हैं- उत्तरायन तथा दक्षिणायन।

उत्तरायन या आदानकाल में शिशिर, वसन्त तथा ग्रीष्म ऋतु का समावेश होता है जब कि वर्षा, शरद और हेमंत ऋतु को दक्षिणायन या विसर्गकाल कहते हैं । प्रत्येक ऋतु दो मास की होती है|

वर्षा – श्रावण-भाद्रपद (15 जुलाई से 15 सितम्बर)
शरद – आश्विन्-कार्तिक (15 सितम्बर से 15 नवम्बर)
हेमन्त – मार्गशीर्ष-पौष मास (15 नवम्बर से 15 जनवरी)
शिशिर – माघ, फाल्गुन (15 जनवरी से 15 मार्च तक)
वसन्त – चैत्र-वैशाख (15 मार्च से 15 मई तक)
ग्रीष्म – ज्येष्ठ-आषाढ़ (15 मई से 15 जुलाई तक)

इन ऋतुओं के विभाजन में स्थान के अनुसार परिवर्तन पाया जाता है। दक्षिणायन अथवा विसर्ग काल – वर्षा, शरद और हेमंत ऋतु में सूर्य दक्षिण दिशा में गमन करता है अतः इस काल को दक्षिणायन कहते हैं।

यह काल विभाजन सूर्य, पृथ्वी, वायु और चन्द्र की गति विशेष के कारण होता है। पृथ्वी का जो भाग सूर्य से दूर हो जाता है वहाँ पर सूर्य का प्रभाव कम पड़ता है तथा चन्द्रमा का प्रभाव बढता है।

विसर्ग काल में चन्द्रमा पूर्ण बली होकर पृथ्वी व मनुष्यों को सौम्य अंश प्रदान करता है तथा सम्पूर्ण भूमण्डल पर अपनी किरणें फैलाकर विश्व को निरंतर तृप्त करता रहता है अतः इसे विसर्गकाल कहते हैं।

वायु भी अत्यन्त रूक्ष नहीं बहती, वातावरण में शीतलता रहती है तथा मनुष्यों का बल उतरोतर बढता रहता है। पृथ्वी व मनुष्य में सौम्यता बढती जाती है। वनस्पतियों में मधुर, अम्ल, लवण रसों की उत्पत्ति होती है, साथ ही मनुष्यों की पाचन शक्ति भी बढ़ती जाती है।

उतरायन अथवा आदान काल

शिशिर, वसन्त तथा ग्रीष्म ऋतु में सूर्य उत्तर दिशा में गमन करता है अतः इस काल को उतारान कहते है ।

इस काल में पृथ्वी की गति के कारण जो भाग सूर्य के निकट होता है वहाँ सूर्य पूर्ण बली रहता है फलस्वरूप सूर्य की तेज किरणें प्राणियों के सौम्य अंश का शोषण कर लेती हैं इसलिए इस काल को आदानकाल अथवा आग्नेय काल कहा जाता है।

इस काल में उष्ण वायु बहती है। वायु तीव्र और रूक्ष होकर स्नेह भाग का शोषण कर लेती है जिससे मनुष्य का पाचकाग्निबल उतरोत्तर घटता जाता है और शरीर में दुर्बलता बढ़ती जाती है।

वनस्पतियों में कटु, तिक्त, कषाय रसों की क्रमशः उतपत्ति होती है अतः मनुष्यों में विसर्ग काल के आरम्भ (वर्षा) तथा आदान काल के अंत (ग्रीष्म) में दुर्बलता रहती है। विसर्ग के मध्य (शरद) और आदान के मध्य (वसन्त) में मध्यम बल की प्राप्ति होती है।

इसी तरह विसर्ग काल के अंत (हेमन्त) में तथा आदान काल के आरम्भ (शिशिर) में उत्तम बल उपस्थित रहता है।

वर्षा ऋतुचर्या

ऋतुकाल – यह विसर्ग काल की प्रथम ऋतु है। यह ऋतु श्रावण-भाद्रपद (15 जुलाई से 15 सितम्बर) मास में आती है।

वातावरण का शरीर पर प्रभाव – इस ऋतु में सूर्य का प्रभाव कम होने लगता है और चन्द्रमा का प्रभाव बढ़ने लगता है। शरीर अत्यन्त आर्द्र रहता है।

ऋतु का पाचकाग्नि पर प्रभाव – इस ऋतु में मनुष्यों का शरीर अत्यंत दुर्बल रहता है फलतः जठराग्नि भी दुर्बल रहती है। वर्षा ऋतु आने पर स्वाभाविक रूप से दूषित वातादि दोषों से दुष्ट जठराग्नि और भी दुर्बल हो जाती है।

इस ऋतु में भूमि से भाँप निकलने, आकाश से जल बरसने तथा जल का अम्लविपाक होने के कारण जब अग्नि का बल अत्यन्त क्षीण हो जाता है तब वातादि दोष प्रकुपित हो जाते हैं।

प्रयोज्य आहार – वर्षा ऋतु में पानी को उबालकर अथवा फिटकरी आदि से संशोधित करके शहद मिला कर पीना चाहिए। पुराने धान्य (चावल, जौं, गेहूं ) का सेवन करना चाहिए।

बैंगन, परवल, लौकी, तुरई, अदरक, जीरा, मेथी, लहसुन, टींडा आदि का सेवन करना हितकर है। इस काल में साधारण रूप से त्रिदोषनाशक आहार, लघु, उष्ण एवं अग्निदीपक द्रव्यों का सेवन करना चाहिए।

इस ऋतु में खट्टे, तीखे, कड़वे, कसेले तथा लवण रस वाले और स्निग्ध द्रव्यों की प्रधानता भोजन में रहनी चाहिये। मूँग का सुसंस्कृत यूष भी हितकर है। वर्षा ऋतु में उत्पन्न क्लेद का शमन करने के लिए थोड़ी मात्रा में शहद का प्रयोग खाने पीने की चीज़ों में मिलाकर करना चाहिए।

सौवर्चल नमक या सोंठ, पीपर, पीपरामूल, चव्य, चित्रक से युक्त दही के पानी का सेवन करना चाहिए। जिस दिन अत्यंत मेघवृष्टि हो उस दिन दाड़िमादि अम्ल रस, लवण, चिकनाई युक्त, नमकीन, सूखे, पचने में हल्के और शहद युक्त पदार्थ खाने चाहिए।

प्रयोज्य विहार – तेल की मालिश हितकर है। नमी (आर्द्रता) युक्त आवास व कार्य स्थल पर न रहें। वर्षा आदि के कारण वायु मण्डल में शीत की अधिकता हो तो यथायोग्य मोटे व ऊनी कपडे़ पहनकर निवात (हवा न लगे ऐसा स्थान) स्थान में रहें व शयन करें।

पृथ्वी की गरमी से बचने के लिए मकान के उपर के मंजिल में शयन करें। नंगे पैर कीचड़ या गीली मिट्टी में न जाए। बाहर से लौटने पर पाँवों को धोकर पौंछ ले।

वर्षा से बचते हुए अपना जीविकोपार्जन करें। वर्षा से भीगकर लौटने पर स्वच्छ जल से स्नान अवश्य करें। कीट-पतंगों तथा मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी का प्रयोग करें।

वर्जनीय आहार – नए चावल, आलू, अरबी, भींडी, ग्वारफली तथा पचने में भारी, आहार द्रव्यों का सेवन निषिद्ध है। भोजन के अपचन स्वरूप होने वाले अजीर्ण को यत्नपूर्वक न होने देवें।

बासी भोजन, दहीं, अधिक जल या तरल पदार्थ, नदी का जल, जल में घुला सत्तू आदि अहितकर हैं।

वर्जनीय विहार – दिन में सोना व रात्री में जागना नहीं चाहिए, ओस गिरते समय उसमें बैठना या घूमना नहीं चाहिए, पूर्वी दिशा की हवा को यत्नपूर्वक वर्जित कर देवें। अधिक व्यायाम, परिश्रम व धूप सेवन नहीं करना चाहिये। अज्ञात नदी, जलाशय आदि में स्नान और तैरने का प्रयत्न न करें।

लेखक राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान, जयपुर में
एसोसिएट प्रोफेसर हैं