जानिये आर्थिक रूपसे कैसे रहा 2017
बिक्रम उपाध्याय
वर्ष 2017 प्रधानमंत्री मोदी के लिए जहां राजनीतिक रूप से उपलब्धियों भरा रहा, वहीं आर्थिक रूप से काफी उथल पुथल वाला वर्ष भी रहा।
नोटबंदी से उत्पन्न अफरा तफरी के साथ वर्ष 2017 में प्रवेश हुआ और आज भी नोटबंदी के फैसले की प्रासंगिकता पर बहस जारी है। सरकार उसे काले धन के खिलाफ एक हिम्मती अभियान के रूप में पेश करती चली आ रही है और विपक्ष से एक ‘‘ आदमी’’ की जिद के कारण सभी को परेशानी का सबब बताता आ रहा हैं।
यह बहस इसलिए नहीं रूक रही हैं, क्योंकि नोटबंदी का असर बाजार की नकदी उपलब्धता पर आज भी बाकी है। नोटबंदी के साथ जीएसटी के सुप्रभाव और दुष्प्रभाव पर भी गलथोथी बादस्तूर जारी है। लेकिन इन सबके बीच आर्थिक मोर्चों पर 2017 बेहद सफल वर्ष भी साबित हुआ है।
अर्थव्यवस्था की सुस्ती खत्म
अर्थव्यवस्था की सुस्ती खत्म होती नजर आ रही है, जीडीपी यानी विकास दर सात फीसदी से उपर होने का अनुमान हर तरफ से मिलने लगा है।
शेयर बाजार 34 हजार अंक के पार जाकर नई उच्चाई का कीर्तिमान बना चुका है, अब तक का सबसे अधिक विदेशी मुद्रा भंडार 400 अरब डाॅलर को पार कर चुका है और सबसे प्रमुख बात यह है कि भारत पूरी दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में माना और जाना जाने लगा है।
वर्ष 2017-18 वित्तवर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) की आर्थिक प्रगति गला सूखाने वाली थी।
नोटबंदी के तुरंत बाद जीएसटी लागू किए जाने के फैसले का असर इतना नकरात्मक रहा कि स्वयं वित्तमंत्री अरुण जेटली को यह कहना पड़ा कि पहली तिमाही में विकास दर का 6 फीसदी से भी नीचे आना बेहद चिंताजनक है। यह हमारी अर्थव्यवस्था के लिए चुनौती है।
हमें अगली तिमाही में ही इसमें सुधार कर लेना पड़ेगा। सचमुंच पहली तिमाही में बाजार में मुर्दनी छा गयी थी। जीडीपी यानी विकास दर 5.7 फीसदी तक गिर गई थी।
हर क्षेत्र में गिरावट देखी जा रही थी। विपक्ष के निशाने पर सरकार थी और मोदी के फैसले पर सवालिया निशान लग रहा था। कांग्र्रेस के नेता और पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने कटाक्ष करते हुए कहा- हमारी आशंका सही साबित हो रही है। छह फीसदी से नीचे की विकास दर भयावह है।
अर्थव्यवस्था में निरंतर गिरावट आती जा रही है। धीमा विकास, कमजोर निवेश, नौकरियों की अकाल सब मिलकार विस्फोटक घालमेल है।
नोटबंदी के आठ महीने बाद सरकार ने जीएसटी यानी सेवा एवं वस्तु कर व्यवस्था एक साथ पूरे देश में जुलाई 2017 से लागू कर दी।
बाजार में मंदी के साथ साथ आशंकाओं के बादल छाने लागे। छोटे व्यापारी से लेकर बड़े काॅरपोरेट तक इस नयी व्यवस्था को दुरूह और अव्यावहारिक बताने लगे। टेक्स रेट से लेकर रिटर्न फाइल करने के तरीके पर सवाल उठने लगे।
राजनीतिक विरोधी मोदी की आर्थिक नीति की आलोचना में हावी होने लगे। विकास में गिरावट के लिए नोटबंदी और जीएसटी को खलनायक बताने लगे।
एलएंडटी, बजाज और हिंदुस्तान लीवर जैसे बड़े काॅरपोरेट ने जीएसटी को विकास के रास्ते में बाधा करार देने में जरा भी संकोच नहीं किया।
राजनीतिक विरोधियों की तो बात ही क्या- पूर्व प्रधानमंत्री और देश के जाने माने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि मैं जानता था कि प्रधानमंत्री मोदी के फैसले अर्थव्यवस्था के लिए विध्वंसक साबित होंगे।
राहुल गांधी ने तो इसे गब्बर सिंह टैक्स करार दिया। और तो और भाजपा के नेता और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वित्तमंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने बिना तैयारी के जीएसटी लागू करने के लिए अरूण जेटली को बर्खाश्त करने की सिफारिश कर दी।
अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटि
बहरहाल सरकार इन आलोचनाओं से विचलित नहीं हुई। तमाम आशंकाओं और समस्याओं को धत्ता बताते हुए जीएसटी न सिर्फ लागू किया गया, बल्कि सरकार इसमें जरूरत के अनुसार लगातार सुधार करती रही, परिणाम ठीक आने लगा और दूसरी (जुलाई-सितंबर) तिमाही खत्म होते ही अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आई।
पहली तिमाही में जहा विकास दर 5.7 फीसदी दर्ज की गई वहीं दूसरी तिमाही में यह 6.3 फीसदी पर आ गई। निर्माण, बिजली, गैस, जलापूर्ति, होटल, परिवहन और अन्य सभी व्यापारों में सुधार दर्ज की गई। दुनिया की तमाम एजेंसियां व वित्त संस्थाानों ने मोदी सरकार के फैसले को सराहना शुरू कर दिया।
अरुण जेटली भी गदगद नजर आए और इस विकास दर को लेकर ट्विट किया- सरकार द्वारा उठाये गए सुधार कार्यक्रम से मजबूत विकास को बल मिला है। निर्माण एवं सेवा क्षेत्र दोनों में सुधार हुआ है।
वर्ष 2017 का सबसे बड़ा फैसला जीएसटी को लागू करना रहा। इसे सदी का सबसे बड़ा फैसला भी कह सकते हैं। मोदी सरकार इस फैसले को हर हाल में सफल करार देना चाहती है, कारण भले ही यह फैसला आर्थिक है लेकिन इसका राजनीतिक असर बहुत बड़ा होने वाला है। |
इसके प्रति सरकार की संजीदगी इस बात से ही समझा जा सकता है कि अब तक जीएसटी काउंसिल की 23 बैठके हो चुकी है।
श्रीनगर से लेकर गांधीनगर तक घूम घूम कर इसकी बैठके आयोजित करने का एक मकसद पूरे देश को यह अहसास कराना भी है कि व्यवस्था जिसका मूल एक देश एक कर व्यवस्था है,उसका परिपालन अक्षरसः किया जा रहा है।
यह जीएसटी ही है जिसने ऐन वक्त पर गुजरात के चुनाव परिणाम को भाजपा के पक्ष में ला खड़ा किया।
गब्बर सिंह टैक्स
सबको मालूम है कि जीएसटी के कारण सूरत के व्यापारी काफी नाराज थे, भाजपा को वोट ना डालने का अभियान चलाया जा रहा था, उसी को भुनाते हुए राहुल गांधी ने इसे गब्बर सिंह टैक्स का नाम दिया, लेकिन गुजरात चुनाव के ठीक पहले गुवहाटी में जीएसटी काउसिंल की बैठक 10 नवंबर को हुई और गुजरात के व्यापारियों को राहत पहुुंचा दी गई और भाजपा गुजरात में चुनाव जीत गई।
वर्ष 2017 में सामने आई सभी राजनीतिक चुनौतियों से तो मोदी ने पार पा लिया लेकिन आर्थिक चुनोतियों से पार पाना अभी बाकी है। 2018 अपनी पीठ पर 2017 की चुनौतियों को भी लादे आने वाला है।
सबसे बड़ी चुनौती नौकरियों के सृजन
सबसे बड़ी चुनौती नौकरियों के सृजन को लेकर है। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के साथ ही कहा था कि उनका लक्ष्य देश में सालाना एक करोड़ रोजगार उत्पन्न करने का है।
हालांकि इसके जवाब में सरकार मुद्रा बैंक से जारी लगभग 8 करोड़ लोन का हवाला देती है, लेकिन सच्चाई यह है कि आवश्यकता के अनुसार नौकरियां पैदा नहीं हो रही है।
हमारे देश में हर साल 10 लाख नये लोग बेरोजगार की लइन में खड़े हो जाते हैं, लेकिन कुछ हजार को ही नौकरियां प्राप्त होती है। अभी भी निजी क्षेत्र की निवेश क्षमता सूखी पड़ी है और सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियां उतनी निकल नही पाती है।
एनपीए यानी बैंकों की गैरनिष्पादित संपत्तियों का मूल्य 10लाख करोड़ से भी अधिक है। बैंकों का एनपीए घटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। तमाम कोशिशों के बावजूद लोन का पुनर्भुगतान नहीं हो पा रहा है।
एक दर्जन कंपनियों के पास ढ़ाई लाख का एनपीए है।यह सरकार और बैंकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि वह बैंकों को डूबने से बचाए।
बैंकों का पुनर्गठन और कमजोर बैंकों का मजबूत बैंकों में विलय की सरकार की योजना अभी सिरे नहीं चढ़ी है। तमाम कानूनों के बनने के बावजूद अर्थव्यवस्था के लिए यह एक कमजोर कड़ी है।
कृषि ऋण को माफ करने का राजनीतिक फैसला अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव डाल रहा है और साथ ही किसानों की समस्या भी ज्यों की त्यों बनी हुई है।
वर्ष 2017 में उत्त्रप्रदेश में कृषि ऋण माफ करने का चुनावी वायदा मोदी सरकार पर भारी पड़ा। उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में भी किसानों का लोन माफ करना पड़ा जिसका सीधा असर बैंकों की साख क्षमता पर पड़ा।
52 फीसदी से अधिक कृषि ऋण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने दिया है, जब तक सरकार द्वारा उनका पुनर्पूंजीकरण नहीं कर दिया जाता तब तक बैंकों का कारोबार सुचारू रूप से चल नहीं सकता।
वर्ष 2018 आर्थिक रूप से ज्यादा चुनौतीपूर्ण
वर्ष 2018 आर्थिक रूप से ज्यादा चुनौतीपूर्ण रहने वाला है। चूंकि अगले साल 2019 में लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं, इसलिए सारा दारोमदार इस वर्ष की उपलब्धियों पर रहने वाला है।
विदेशी निवेशकों का आकर्षण भारत के प्रति बनाये रखने के लिए एक तरफ कड़े कदम की आवश्यकता है तो दूसरी तरफ घरेलू जनता के लिए बहुत सारे कल्याणकारी योजनाओं की भी घोषणा होनी है।
स्मार्ट सिटी पर क्रियान्वयन, सबको घर देने की घोषणा का पालन किसानों को राहत पहुंचाने की योजनाएं और देश के ढांचागत विकास के लिए और धन का प्रयोजन सरकार पर अधिक खर्च करने का दबाव बढ़ायेगा तो कर प्रणाली को और ज्यादा तर्क संगत बनाने,विदेशी निवेशकों के लिए व्यवसाय को और सुचारू और सरल बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाने पर भी सरकार जोर बनाए रखेगी।
चूंकि अब 19 राज्यों में भाजपा सरकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से है इसलिए किसी भी विफलता का सीधा ठीकरा प्रधानमंत्री मोदी के सिर ही फूटेगा।