दलित राजनीति का अप्रिय राग

dalit village


अनिल विभाकर

इस समय देश में दलित राजनीति के नाम पर अप्रिय राग बज रहा है।

अप्रिय इसलिए कि इस राग से समाज में सदभाब नष्ट हो रहा है। दलितों का उत्थान तो निश्चित रूप से होना चाहिए लेकिन इसके नाम पर समाज में जहर घोल कर सदभाब नष्ट करना सामाजिक और संवैधानिक अपराध है।

इससे न तो दलितों का उत्थान होगा न ही सामाजिक समरसता बचेगी।दरअसल आजादी के बाद दलितों के कुछ स्वयंभू नेता दलितों को अराजक बनाकर सिर्फ सत्ता पाना चाहते हैं।

सत्ता में आने पर वे खुद सवर्ण और सामंत बन जाते हैं । दलितों का उत्थान करना तो भूल ही जाते हैं,उल्टे उनमें अराजकता की भावना उत्पन्न कर उन्हें न्याय और निष्पक्षता से परे रखना चाहते हैं।

सब जानते हैं कि न्याय और निष्पक्षता से परे व्यक्ति आंख होते हुए भी अंधा होता है। दलितों के नेता इसीलिए खुद तो दौलतपति हो गए मगर दलितों की हालत में बहुत सुधार नहीं हो पाया।

दलितों के नेता नहीं चाहते कि दलित समृद्ध हों। जिस दिन दलित समृद्ध हो जाएंगे उस दिन मायावती जैसी दलित नेताओं की बौद्धिक बेईमानी खत्म हो जाएगी । वे मुद्दाविहीन हो जाएंगे।

इस समय दलित राजनीति के अप्रिय राग का कोलाहल इतना अधिक है कि लोगों को यह सच सुनाई ही नहीं पड़ रहा कि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय का छात्र रोहित वेमुला दलित नहीं बल्कि ओबीसी वर्ग का था।

वेमुला ने आत्महत्या की यह दुखद है मगर उसकी आत्महत्या को दलित की आत्महत्या बताकर जिस तरह पूरे देश में राजनीति की जा रही है वह घोर आपत्तिजनक है।यही है दलित राजनीति का अप्रिय राग।

जातपात पूछै नहीं कोई ,हरि को हरि को भजै सो हरि का होई।यह सूक्ति बहुत पहले से सुनता आ रहा हूं।

मगर इस आजाद और लोकतांत्रिक भारत में तो यह सूक्ति निरर्थक हो गई है।अब तो हालत है – जातपात पूछै सब कोई, हरि को •ाजै न हरि का होई।

इस समय देश की पूरी राजनीतिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था बिना जातपात पूछे चल ही नहीं रही ।इस व्यवस्था में स•ाी पार्टियां सत्ता पर काबिज होना चाहती हैं मगर राजनेता जातपात के आधार पर ही सबकुछ सोचते हैं।

वे न तो हरि को भजते हैं और न ही हरि के होने की सोचते हैं।यह हरि कौन है? लोकतंत्र में यह हरि देश की जनता है।आजाद भारत में जनता के दुख की यही मूल वजह है।

सवाल है, जो राजनेता हरि का है ही नहीं वह हरि को भजेगा क्यों? यह सूक्ति तब अचानक याद आई जब बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने अपमान के विरोध में दलितों से लखनऊ की सड़कों पर अराजक प्रदर्शन कराया और कांग्रेस ने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश के भा वी मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया।

जातीय गणित के आधार पर ही कांग्रेस ने शीला दीक्षित को यूपी के अपने भा वी मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया है।वहां अगले साल विधानसभा चुनाव होना है।इसलिए सभी प्रमुख पार्टियां बिसात पर अपने मोहरे फिट करने में लगी हैं ।

कांग्रेस ने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को यूपी के मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर सपा,बसपा और भा जपा के सामने नई मुश्किल जरूर पैदा कर दी मगर इससे लोगों के बीच यह भी संदेश गया कि उसके पास यूपी में नेताओं का अकाल है.बहन मायावती स्वामी प्रसाद मौर्य के झटके से उबरने की कोशिश कर रही हैं तो भा जपा अपने बड़बोले नेता दयाशंकर सिंह के मायावती के विरुद्ध अमर्यादित वक्तव्य के कारण परेशान है।

दयाशंकर सिंह को पार्टी से निकाल कर भा जपा ने दलितों में अपना भरोसा बनाए रखने और मायावती का क्रोध कम करने की कोशिश तो की मगर इसमें उसे कहां तक सफलता मिलेगी यह आने वाला समय बताएगा।

लोकसभा चुनाव के बाद से हाशिए पर पड़ी मायावती ने दयाशंकर सिंह के अमर्यादित बयान को एक बड़ा मुद्दा बनाना चाहा मगर मायावती के समर्थकों ने राजधानी लखनऊ में दयाशंकर के विरोध में ऐसी अराजकता का प्रदर्शन किया कि बहनजी के हाथ से पूरी बाजी ही निकल गई ।

प्रदर्शन के दौरान मायावती समर्थकों ने दयाशंकर सिंह की मां,बहन और बेटी के खिलाफ जिस तरह अश्लीलता का प्रदर्शन किया और नारे लगाए उससे जनमत बहनजी के खिलाफ हो गया।

दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह ने मायावती के खिलाफ ऐसा मोर्चा संभाला कि बहनजी को दिन में ही तारे नजर आने लगे। दलितों के नाम पर अप्रिय राग बजाने का ऐसा ही नतीजा होता है ।

यह पहला अवसर है जब किसी घरेलू महिला ने मायावती को इस तरह सवालिया कठघरे में खड़ा कर उन्हें बैकफुट पर ला दिया।स्वाति सिंह के सवालों का मायावती के पास कोई जवाब नहीं था।

मायावती ने अपने अराजक समर्थकों और नेताओं का जिस तरह बचाव किया उससे उनकी न सिर्फ छवि बिगड़ी बल्कि यह भी संदेश गया कि बहनजी की संविधान में कोई आस्था है ही नहीं।

वे हत्या का जवाब हत्या और गाली का जवाब गाली से देना चाहती हैं।स्वाति सिंह ने कहा कि मायावती को दलितों से कोई लेना देना नहीं।वे वोट के लिए मुद्दे तो दलितों का उठाती हैं मगर गुजरात या महाराष्ट्र में दलितों पर हुए अत्याचार के विरोध में उन्होंने प्रदर्शन नहीं किया।

विरोध प्रदर्शन उन्होंने अपने मुद्दे को लेकर किया। स्वाति सिंह के सड़क पर उतर आने से ऐसा माहौल बन गया कि मायावती घबरा गर्इं और दो दिन बाद होने वाले अपने प्रदर्शन को उन्होंने रद्द कर दिया ।

दरअसल आजादी के बाद भारत में दलितों और अल्पसंख्यकों के नाम पर राजनेताओं ने भयावह अराजकता उत्पन्न कर रखी है।

मायावती और कुछ अन्य नेताओं ने समाज में ऐसा माहौल बना दिया जिससे यह लगता है कि दलित और अल्पसंख्यक संविधान के नियमों से ऊपर हैं। वे कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं।

अगर ऐसी मानसिकता नहीं होती तो राजधानी लखनऊ में बसपा के कार्यकर्ता और नेता दयाशंकर सिंह की मां ,बहन और बेटी के खिलाफ गंदे नारे लिखे बैनर नहीं लहराते।

हैरत की बात तो यह है कि खुद को दलितों की देवी बताने वाली मायावती ने अपने कार्यकर्ताओं की इस हरकत को जायज ठहराया।

बसपा जिस अंबेदकर की पताका फहराती है उनका लिखा संविधान हत्या का जवाब हत्या और गाली का जवाब गाली से देने की इजाजत नहीं देता।मगर मायावती का संविधान हत्या का जवाब हत्या और गाली का जवाब गाली से देने की इजाजत देता है।

इससे यह साफ हो जाता है कि बहनजी की न तो लोकतंत्र में आस्था है और न भा रत के संविधान में।ऐसा नेता दलितों का कल्याण नहीं कर सकता।दरअसल सत्ता हथियाने के लिए मायावती और अन्य नेता दलितों को हमेशा बरगलाते रहते हैं ।

.मायावती और उनके जैसे अन्य नेता सवर्णों पर दलितों का हजारों साल से शोषण और उत्पीड़न करने का आरोप लगाते हैं जबकि यह आरोप तथ्यात्मक रूप से गलत है ।

आजादी से पहले लगभग दो सौ साल तक देश में अंग्रेजों का शासन था।उससे पहले लगभग आठ सौ साल तक मुगलों का शासन रहा और मुगलों के शासन से पहले कई सौ साल तक पिछड़ों और अति पिछड़ों का राज था।

अशोक, चंद्रगुप्त आदि सवर्ण नहीं बल्कि पिछड़े थे।हूणों और हयहयवंश के लोग भी सवर्ण नहीं थे।आजादी के बाद से अब तक यानी लगभीग 70 वर्ष से देश में जो सरकार है उसे सवर्णों की सरकार नहीं कहा जा सकता।

मायावती और वामपंथी सवर्णों पर मनुवादी होने का आरोप लगाते हैं मगर मनुस्मृति से तो सरकार चल नहीं रही।सरकार तो भा रत के संविधान से चल रही है जिसे अंबेदकर ने बनाया है.फिर सवर्णों पर ऐसे झूठे आरोप लगाकर समाज में जहर क्यों घोला जा रहा है?

मायावती और उनके जैसे अन्य नेता गलत तथ्य पेश कर सवर्णों पर झूठे आरोप लगा रहे हैं और दलितों में अराजकता का भा व •ार रहे हैं।दलित नेताओं और वामपंथियों की इसी विकृत मानसिकता के कारण समाज में अराजकता पनप रही है।

ऐसे राजनेताओं के लिए हत्या या उत्पीड़न तब तक गंभीर अपराध नहीं जब तक वह दलितों या अल्पसंख्यकों से न जुड़ा हो।मीडिया का एक वर्ग भी इसी चश्मे से खबरों को देखता और उछालता है।

हकीकत यह है कि आजादी के बाद दलितों पर अत्याचार की जितनी घटनाएं हुर्इं या हो रही हैं उनमें अधिकांश में पिछड़ों और अतिपिछड़ों की संलिप्तता पाई गई या जा रही है।बावजूद इसके वोटबैंक की राजनीति के तहत सवर्णों को इसके लिए जिम्मेदार बताया जाता है।

दरअसल बसपा ,सपा ,जदयू, राजद लोजपा और कांग्रेस दलितों,पिछड़ों और कथित अल्पसंख्यकों को साथ लेकर चुनाव जीतने का समीकरण तैयार करती रही हैं।भा जपा हिुंदुओं को गोलबंद करती है।

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में इसी आधार पर चुनाव लड़े जाएंगे।इसमें किस दल को कहां तक सफलता मिलेगी यह अभी कहा नहीं जा सकता।फिलहाल स्वाति सिंह ने मायावती को बैकफुट पर ला दिया है इतना तो तय है।

मायावती लाख कहें कि हाथी नहीं गणेश है,ब्रह्मा,विष्णु,महेश है- यूपी के सवर्ण अब उनके इस झांसे में आने से रहे.

जहां तक सपा का सवाल है ,वह करे तो क्या।अखिलेश सरकार का रिपोर्ट कार्ड ठीक नहीं है।अखिलेश सरकार में सपा के नेता और कार्यकर्ता खुलेआम लूटखसोट,दबंगई  कर रहे हैं।अखिलेश सरकार या तो ऐसा करने वालों पर कार्रवाई नहीं करती या उन्हें सरकार का संरक्षण मिला हुआ है।

सवाल यह है कि इस खराब रिपोर्ट कार्ड के कारण सपा यूपी में फिर सत्ता में वापस आ पाएगी? खुद मुलायम सिंह कहते हैं कि अखिलेश सरकार का रिपोर्ट कार्ड ठीक नहीं है।

उन्हें लगता है कि उनके कार्यकर्ताओं का रवैया यदि ऐसा ही रहा तो अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी सत्ता से बाहर हो जाएगी।

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की मौजूदगी में मुलायम ने कहा कि सपा नेता और कार्यकर्ता अपना आचरण सुधारें नहीं तो पार्टी सत्ता में वापस नहीं आ पाएगी।समाजवादी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर जमीन कब्जाने, दबंगई,भ्रष्टाचार और रंगदारी के आरोप यदि विपक्ष लगाता तो और बात थी मगर यह बात तो खुद पार्टी सुप्रीमो ने कही इसलिए यह बेहद गंभीर है।

कैराना से हिंदुओं के पलायन को भी इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए। जहां तक कांग्रेस की बात है , हकीकत यह है कि पिछले दो-तीन दशक में उत्तर प्रदेश में उसका जनाधार काफी घटा है।दिक्कत यह है कि कांग्रेस एक परिवार विशेष की परिक्रमा की मानसिकता से अब तक उबर नहीं सकी है।

इसके कारण कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं में आत्मविश्वास खत्म हो चुका है।पार्टी ने राहुल गांधी को तुरुप का पत्ता समझ कर उन्हें आगे किया था मगर राहुल चल नहीं पाए।शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर कांग्रेस अब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रियंका गांधी को प्रचार में उतारने जा रही है।

राहुल ने यूपी में प्रचार शुरू भी कर दिया है मगर लोकसभा में उनकी नींद खुलती नहीं और जब खुलती है तो वे अरहर मोदी अरहर मोदी करने लगते हैं।यह राष्ट्रीय नेता होने या कहलाने का लक्षण नहीं है.समय बताएगा कि इसका फायदा कांग्रेस को कितना मिलता है।

 

लेखक हिंदी के वरिष्ठ कवि और  पत्रकार हैं।राष्ट्रीय हिंदी दैनिक जनसत्ता के रायपुर संस्करण और हिंदी दैनिक नवभाारत के भुबनेश्वर संस्करण के संपादक रह चुके हैं । इसके अलाबा हिंदुस्तान के पटना संस्करण में दो दशक तक वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं । इस लेख में दिए गए बिचार उनके निजस्व हैं ।