वंशगत राजनीति भ्रष्टाचार का पर्याय क्यों ??

शिवानन्द उपाध्याय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी एक चुनावी सभा में जब कहा था कि मैं तो अकेला हूं, फिर किसके लिए भ्रष्टाचार करूंगा?” तो उनका स्पष्ट संकेत उन नेताओं की ओर था जिनके परिवार का कोई न कोई सदस्य या रिश्तेदार या पूरा कुनबा राजनीति में है और साथ ही साथ किसी-न-किसी भ्रष्टाचार में लिप्त है या उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप है|

ऐसी स्थिति में यह आशंका स्वाभाविक है कि क्या वंशगत राजनीति भ्रष्टाचार के मूल कारणों में से एक है या भ्रष्टाचार राजनीतिक परिवारों का कोई गुण है ? राजनीति में परिवारवाद और राजनीतिक परिवारों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता ये दो अलग-अलग पहलू है जो अब मिलकर एक हो गए है

| हालाँकि राजनीति और भ्रष्टाचार के बीच इस दोस्ती की शुरूआत तो काफी पहले हो गई थी, पहले भ्रष्टाचार में संलिप्तता के आरोप राजनेताओं पर लगते रहे है लेकिन अब राजनेता भ्रष्टाचार की बहती नदी में पूरे परिवार और रिश्तेदार सहित गोता लगाते है|

अब राजनीति की वंशानुगतता और भ्रष्टाचार के आपसी रिश्ते इतने मजबूत हो चुके हैं कि इनके बीच में नेताओं के बेटा-बेटी, दामाद, पत्नी, पोते, भांजे, साले, साढू भी पहले राजनीति और साथ ही भ्रष्टाचार में अपनी पैठ बनाने में लगे हुए है |

भ्रष्टाचार में नेताओं के पूरे परिवार सहित शामिल होने की घटनाएँ भी कोई नई नहीं है और नहीं मौजूदा हालात में किसी भी दल का कोई भी राजनीतिक परिवार भ्रष्टाचार से अछूता है | नेशनल हेराल्ड अखबार के मालिकाने में रहस्यमय तरीके से बदलाव से देश पर कोई सात दशकों तक राज करने वाले स्वयं कांग्रेस का शीर्ष परिवार भी कटघरे में खड़ा है|

पंजाब में बादल कुनबा, यू पी में मुलायम कुनबा और मायावती का परिवार, तमिलनाडु में करुणानिधि का परिवार ऐसे बहुत राजनीतिक परिवार है जिनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप है और मामले सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचे हैं और सीबीआई जांच भी हो रही है |

एक परिवार के भ्रष्टाचार के मामले की सुर्खियों की स्याही सूख भी नहीं पाती है, उसके पहले ही दूसरे परिवार के भ्रष्टाचार में आकंठ डूबने का नया मामला सामने आ जाता है।

आज़ादी के बाद देश में लोकतान्त्रिक और गणतंत्रात्मक व्यवस्था की नींव रखी गई | लोकतंत्र का मतलब है, जनता का जनता के लिए तंत्र और गणतंत्र का अर्थ है कि देश का प्रधान वंशानुगत नहीं हो सकता है |

लोकतंत्र की ताकत जनता से आती है | यही कारण है कि समस्त शासन प्रणालियों में इसे श्रेष्ठतम शासन प्रणाली माना गया है | लेकिन हकीकत में होता यह है कि जनता द्वारा अपने बीच से किसी प्रतिनिधि का चुनाव नहीं किया जाता है बल्कि जनता राजनीतिक दलों द्वारा थोपे के व्यक्तियों में से ही चुनाव करती है| अब यह राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है कि वे किसे उम्मीदवार बनाते है |

राजनीतिक दलों ने इस प्रक्रिया का अवांछित लाभ उठाना शुरू किया और संगठन से लेकर टिकट वितरण में नेताओं के परिवारों और रिश्तेदारों को अधिक महत्त्व देना शुरू किया या यों कहा जाय कि लोगों पर थोपना शुरू किया |

सत्तर के दशक तक जन सेवा के आदर्शों और सिद्धांतों से प्रभावित होकर युवा विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़ते थे और कार्यकर्त्ता बनते थे और उनमें से कुछ लोग सांसद-विधायक भी बने । लेकिन बाद के वर्षों में सत्ता से या सांसदी-विधायकी से जुड़े सुख-सुविधाओं की सहज उपलब्धता को लेकर बढ़ते मोह और जीवन एवं समाज के विभिन्न स्तरों पर दबदबे की ललक के कारण नेताओं ने अपने परिवारों से लेकर रिश्तेदारों को राजनीति में उतारना शुरू कर दिया |

देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाय तो शायद ही कोई राजनीतिक दल होगा, जिसमें उस दल के नेताओं की पारिवारिक पृष्ठभूमि को महत्व नहीं दिया जा रहा हो |

 इसके साथ ही यह आम धारणा भी विकसित होती चली गई है कि एक बार सांसद या विधायक या मंत्री बन जाने पर कम से कम सात पुश्तों के खाने-पीने का इंतजाम करना है और इस कार्य में वे अकेले नहीं बल्कि पूरे परिवार सहित शामिल हो जाते हैं| यह उनके लोकतंत्रिक चरित्र की तुलना में मध्ययुगीन सामंती व्यवस्था की तरह अधिक लगता है|

ऐसा लगता है कि वे एक लोकतान्त्रिक और कल्याणकारी भारत के नेता नहीं बल्कि मध्ययुगीन सामंत है, जहाँ परिवारों के हाथों में सम्पूर्ण शक्ति और धन का संग्रह हो रहा है। उनकी यह सोच कि राजनीति के गलियारों में रहकर वे कोई भी अनर्थ करके बच सकते हैं, पूरे पारिवारिक कुनबे को राजनीति एवं भ्रष्टाचार में उतार देते हैं|

इस तरह परिवारवाद और भ्रष्टाचार को एक समान रूप से इस कदर बढ़ावा दिया कि दोनों ही एक-दूसरे के पर्यायवाची की प्रतीत होने लगे है|   राजनीति और भ्रष्टाचार के संबंधों में अक्सर यह भी देखने में आया है कि राजनीतिक विरासत भले ही परिवार का कोई एक सदस्य संभाल रहा है, भ्रष्टाचार के विरासत में परिवार के सभी सदस्य ही नहीं, रिश्तेदार भी शामिल हो जाते है |

राजनेता परिवार कई व्यवसायों का मालिक होते हैं, कुछ फर्जी कंपनियों के डाइरेक्टर होते है, जिनका केवल एक ही उद्देश्य होता है | वे जब भी सत्ता में होते हैं, अपने पद और हैसियत के दुरुपयोग के ज़रिये अपने परिजनों के लिए और परिजनों के माध्यम से धन और संपत्ति जमा करते हैं। यही नहीं, कुछ नेता ऐसे भी है जो पार्टी के धन को भी परिवार का धन मानते है |

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुलायम परिवार और बसपा में मायावती तो बिहार में राजद में लालू परिवार राजनीति से होने वाली सारी कमाई पर भी अपना हक़ मानते है, जिसका वे निजी से लेकर राजनीतिक कार्यों के लिए भी इस्तेमाल करते है| एक समय में जैन हवाला डायरियों में लाल कृष्ण अडवाणी और शरद यादव के नाम थे, जिन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया था कि उन्होंने पार्टी के लिए यह धन लिया था।

यह उनकी व्यक्तिगत स्तर पर ईमानदारी का सबूत भी है कि उन्होंने धन का इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत परिवारों के लिए नहीं किया | लेकिन अब पारिवारिक वर्चस्व वाले दलों के पैसे को परिवार के सदस्यों में बंटवारा करना और उससे परिवार के सदस्यों के लिए बेनामी संपत्ति खड़ा करना प्रमुख प्रवृति बन गई है|

इसके लिए आवश्यक नहीं कि राजनीतिज्ञों के परिजन या करीबी राजनीति में हो | परिजनों या करीबी रिश्तेदारों के नाम पर फर्जी या मुखौटा कंपनी बनाकर बेनामी संपत्ति जुटाने का भी कारनामा किया जाता है |

यदि हम राजनीति में वंशानुगता पर विचार करे तो आज भले ही देश के चारों शीर्ष पदों पर आसीन नेताओं का संबंध किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले परिवार से नहीं हैं। लेकिन मौजूदा लोकसभा में अगर 40 वर्ष से कम उम्र के सांसदों पर नजर डालें तो इनमें 98 प्रतिशत सांसद राजनीतिक परिवारों से आए हैं।

सब किसी न किसी ऐसे परिवार से जुड़े हैं जिनमें उनके दादा, नाना, पिता या भाई पहले सांसद या मंत्री रह चुके हैं। पहली लोक सभा में परिवारिक पृष्ठभूमि से राजनीति में आने वालों की संख्या सिर्फ नौ प्रतिशत थी। मौजूदा समय में भारत की संसद में ऐसा लगता है कि वो रिश्तेदारों से भरी पड़ी है| देश की 40 फीसदी राज्य सरकारें किसी न किसी राजनैतिक कुनबे के हाथो में ही हैं|

राजनीतिक उत्तराधिकार या विरासत की इस प्रवृति को पोषित करने और आगे बढ़ाने का सिलसिला भारतीय राजनीति में कांग्रेस और नेहरू परिवार से ही चली आ रही है | कांग्रेस की विरासतवादी राजनीति के प्रति नयी पीढ़ी में असंतोष होना स्वाभाविक था | यह विरोध उचित भी था, क्योंकि लोकतंत्र में वंशवादी नेतृत्व का कोई औचित्य नहीं है।

लेकिन विडंबना यह है कि जो भी लोग या पार्टियां कांग्रेस के एक परिवार की अधिनायकवादी प्रवृति के विरुद्ध विद्रोह के बाद अस्तित्व में आई, उनके अंदर शुद्ध लोकतांत्रिक संस्कार विकसित नहीं हुआ बल्कि उन पार्टियों में भी परिवारिक वर्चस्व को ही तवज्जो दी गई और पार्टियों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों में बदल दिया गया |

लालू प्रसाद ने तो एक बार यहाँ तक कहा था कि मेरा परिवार बिहार का नेहरू परिवार है। जीवनभर वंशवादी नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाने वाले डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का वारिस मानने वाली समाजवादी पार्टी में आज यह कल्पना ही नहीं की जा सकती कि मुलायम परिवार के अलावा कोई दूसरा पार्टी या बहुमत आने पर सरकार का नेतृत्व कर सकता है।

वंशवादी नेतृत्व के कारण अब स्थिति यह हो गई है कि राजनीति में पारिवारिक पृष्ठभूमि के बिना युवाओं का आना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी हो गया है। लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। राजनीतिक परिवारों के दबदबे वाली पार्टियों के चरित्र के जब लोकतांत्रिक होने की ही परिकल्पना नहीं की जा सकती है तो वे संसदीय लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रक्रियाओं का पालन कहां से करेंगे?

यह सोच कि एक राजनीतिक परिवार से ही नेतृत्व निकल सकता है और उसे ही दल और बहुमत मिलने पर सरकार का नेतृत्व सौंपा जाना चाहिए, यह लोकतंत्र की वास्तविक अवधारणा के ही प्रतिकूल है।

अब जिस दल के अंदर ही लोकतंत्र नहीं है वह सामंती मानसिकता और भ्रष्ट तौर-तरीकों को ही बढ़ावा देगा, लोकतंत्र को कैसे मजबूत करेगा? परिवारवाद की नींव पर टिकी सामंती सोच वाली राजनीति ने एक भ्रष्ट-आपराधिक-सामंती व्यवस्था का ही निर्माण किया हैं।

आर्थिक उदारवाद और बढ़ते उपभोक्तावाद के परिवेश में राजनीति के निर्धारण में अर्थ या व्यवसाय के अहम होते जाने के कारण अब राजनीतिक विरासत के साथ-साथ भ्रष्टाचार भी विरासत का अंग बन गया है | हम सभी जानते है कि भारतीय राजनीति में खर्चीली चुनाव प्रणाली राजनीति में भ्रष्टाचार की प्रमुख वजह है|

चुनावों में येन-केन जीत हासिल करने के लिए नेता जो बेहिसाब पैसा बहाते है उसकी भरपायी करने के लिए भ्रष्ट तरीकों का सहारा लेते हैं | सांसद-विधायक क्षेत्र विकास फंड इसमें काफी मददगार है।

वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने इस फंड को समाप्त करने की सिफारिश की थी, लेकिन अधिकतर राजनीतिक दल इस फंड को बनाए रखने के पक्ष में हैं क्योंकि यह फंड उनको व उनके कुनबे के राजनीतिक वर्चस्व को बनाए रखने में मददगार है |

अभी हाल में संसदीय समिति ने इस फण्ड को बढाकर 25 करोड़ करने की सिफ़ारिश की है | सांसद-विधायक क्षेत्र विकास फंड से जुड़े क्रियाकलापों के लिए ऐसे ठेकेदारों की जरूरत होती है जो बदले में सांसदों-विधायकों को मोटा कमीशन दे सकें |

देखने में यह आया है कि अधिकतर मामलों में, अपवादों को छोड़कर, सांसद फंड का लगभग 40 प्रतिशत कमीशन में चला जाता है। ये ठेकेदार ही जब राजनीतिक कार्यकर्ताओं की भूमिका निभाने लगे हैं |

यदि सांसद फंड बंद कर दिया जाए तो अधिकतर वंशवादी-परिवारवादी दलों, सांसदों या उम्मीदवारों को इन्हें ठेकेदार सह कार्यकर्ता नहीं मिलेंगे जो उनकी कमाई भी करा सके और राजनीतिक स्वार्थ को भी पूरा करते है |

राजनीतिक प्रक्रिया पर राजनीतिक परिवारों के दबदबे के कारण गैर राजनीतिक परिवार वाले नेताओं का प्रभाव कम हो जाता है | इन पार्टियों द्वारा नेताओं के परिवारों और रिश्तेदारों को संगठन और टिकट वितरण में अधिक महत्त्व देने या सत्ता में अधिक भागीदारी देने के कारण मतदाताओं के समक्ष चुनाव के लिए काफी सीमित विकल्प रह जाते हैं |

फलतः राजनीतिक परिवारों के दबदबे को समाप्त करना संभव नहीं होता है और उनकी जनता के प्रति जबावदेही भी काफी कम होती है| पार्टी नेतृत्व विरासत में मिलने से वे जन सेवा या देश सेवा की भावना से रहित होते है | उनकी सामंती मानसिकता उन्हें भ्रष्टाचार की ओर अग्रसर करती है|

ये सत्ता को अपनी जागीर समझते हैं और मनमाने ढंग से काम करते हैं। देश की जनता द्वारा जाति, क्षेत्र, संप्रदाय, भाषा, संस्कृति आदि के आधार मतदान करने की प्रवृति के कारण ये परिवारवादी नेता अपने जातीय वोट बैंक को लेकर भी निश्चिंत रहते हैं। ऐसे परिवारों की सत्ता में बने रहने की निश्चिन्तता उन्हें भ्रष्टाचार करने को प्रोत्साहित करती है |

ऐसे राजनीतिक परिवारों को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए आर्थिक रूप से मजबूत होना अत्यंत आवश्यक है| यह जरुरत ही उन्हें भ्रष्टाचार करने से, पूंजीपतियों से सांठगांठ करने, कालाबाजारियों और जमाखोरों के साथ नरमी बरतने के लिए विवश करती है | ऐसे नेताओं का देश या समाज के विकास के प्रति लापरवाह होना लाजिमी है |

यह अक्सर देखने में आया है कि जिन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व वंशानुगत नेता करते है उसकी तुलना में गैर वंशानुगत नेताओं के प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों बेहतर विकास हुआ है |

2015 में आर्थर ब्रैगनका, क्लाउडियो फेराज़ और जुआन रियोस ने ब्राजील में शहरी स्तर पर सरकारों की कार्य पद्धति पर अध्ययन करते हुए पाया कि जिन नगरपालिकाओं में वंशानुगत राजनेता सत्ता में थे, वहाँ पूंजी व्यय अधिक हुआ है लेकिन उन्होंने विकास को लेकर कोई बेहतर प्रदर्शन नहीं किया है |

इसकी तुलना में वंशानुगत राजनेताओं की सत्ता से रहित नगरपालिकाओं में बेहतर विकास हुआ है | हाल ही में हार्वर्ड में सिद्धार्थ जॉर्ज और डोमिनिक पोनाट्टू द्वारा भारतीय संदर्भ में किए गए एक अध्ययन के अनुसार जिन निर्वाचन क्षेत्रों में राजनीतिक परिवारों की जीत हुई है, उसकी तुलना में उन निर्वाचन क्षेत्रों की वृद्धि दर अधिक रही है जहाँ राजनीतिक परिवारों की हार हुई है|

राजनीतिक परिवारों के नेतृत्व और उसकी भ्रष्टाचार में संलिप्तता ने हमारे देश में सही मायने में लोकतंत्र के विकास को बाधित किया है | वंशवाद के कारण ही नयी पीढ़ी, खासतौर से युवा पीढ़ी राजनीति से दूर होती जा रही हैं। इससे सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि व्यापक जनसमर्थन और बेहतर नेतृत्व क्षमता वाले स्वाभाविक नेता के उभरने की संभावना खत्म हो जाती है।

राजनीति में ईमानदार और योग्य लोगों के आने का रास्ता अवरुद्ध हो जाता है | पार्टियों पर राजनीतिक परिवारों का शिकंजा इतना कसा हुआ है कि दूसरों को आगे बढ़ने का अवसर ही नहीं मिलता |

राजनीतिक पृष्ठभूमि से रहित जब कोई नेता राजनीति में आता है तो उसे राजनीतिक परिवार वाले नेताओं की जी-हुजूरी करनी पड़ती है, जिसका परिणाम यह होता है कि जन सेवा की भावना समाप्त जाती है | यह प्रवृति देश के वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए सुखद और वांछनीय नहीं है |  

अंत में, हमारे देश में परिवार के मूल्यों और संस्कारों को व्यापक महत्व दिया जाता रहा है | महात्मा गांधी भी परिवार वाले व्यक्ति थे, लेकिन उन पर कभी भ्रष्टाचरण या अनैतिक तौर-तरीके अपनाने का आरोप नहीं लगा। लेकिन आज राजनीति और भ्रष्टाचार के रिश्ते में परिवार की भागीदारी अहम हो गई है |

हालाँकि भारतीय समाज में परिवार के विघटन के साथ ही मूल्यों की शुचिता भी धराशायी हुई है जिसका असर युवाओं के नैतिक पतन और अपराध संलिप्तता के रूप में हुआ है, लेकिन राजनेताओं के परिजनों की अनैतिक संलिप्तता पूरे भारतीय समाज के पारिवारिक आदर्शों और मूल्यों की एक गलत परिपाटी को जन्म देती है, जो परिवार के साथ-साथ समाज और राष्ट्र के लिए भी घातक बनता जा रहा है |

चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने कहा है-यदि आपका चरित्र अच्छा है तो आपके परिवार में शांति रहेगी, यदि आपके परिवार में शांति रहेगी तो समाज में शांति रहेगी,  यदि समाज में शांति रहेगी तो राष्ट्र में शांति रहेगी” | इसके विपरीत नेताओं और उनके परिवारों का चरित्र ही जब कलंकित है तो समाज और राष्ट्र में शांति की परिकल्पना कहाँ से संभव है |