आरक्षण राजनीति नहीं है, आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान का माध्यम है
किसी भी लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली का यह दायित्व होता है कि वह देश के संसाधनों, अवसरों एवं सुविधाओं में देश के सभी नागरिकों या समाज के प्रत्येक समूह की की भागीदारी को सुनिश्चित करे|
1947 में देश के आज़ाद होने के बाद लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली की नीव रखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने दलितों एवं आदिवासियों (एससी और एसटी)की अति दयनीय दशा को देखते हुए और देश के संसाधनों, अवसरों एवं शासन प्रणाली में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने और उन्हें शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन से बाहर निकाल कर देश की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए काफी सोच समझकर उनके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की |
इसके पीछे सोच यह भी थी कि मुख्यधारा में शामिल होने से इन जातियों की तरक्की होगी, जिससे जाति व्यवस्था कमज़ोर होगी, और अंतत: ख़त्म हो जायेगी|
संविधान निर्माताओं ने एससी और एसटी के लिए आरक्षण का यह प्रावधान अस्थायी रूप से केवल 10 वर्षो के लिए किया था| लेकिन बाद के नेताओं की वोट बैंक की राजनीति ने इसे धीरे-धीरे स्थायी व्यवस्था में तब्दील कर दिया और अपने राजनीतिक स्वार्थ को साधने के लिए इसे संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार होने का भ्रम पैदा कर दिया |
दरअसल, आरक्षण को राजनीति का औजार समझने की कवायद काफी पहले शुरू हो चुकी थी लेकिन इसे धार देने का काम विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल कमीशन की सिफारिशों को 1991 में लागू करने के साथ ही शुरू हुआ |
आरक्षण और वोटों की राजनीति के संबंध की विषबेल इस तरह से बढ़ने लगी कि जो जातियां आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से भी सक्षम थीं, उन्होंने भी अपने लिए आरक्षण की मांग करनी शुरू कर दी| यहाँ तक कि आरक्षण के लिए कोटे के भीतर कोटे की और अपनी श्रेणी सामान्य से बदलवा कर ओबीसी और ओबीसी से जनजाति करने की मांग भी शुरू हुई |
सरकारों ने भी वोटों के नफा-नुकसान को तौलते हुए आरक्षण की श्रेणी में कई नई जातियों को ले लिया| आज स्थिति यह है कि जो लोग अपने आप को पिछड़ा कहे जाने पर आपत्ति उठाते थे और बुरा मान जाते थे, यहाँ तक कि एक समय आरक्षण के खिलाफ आन्दोलनों के सूत्रधार हुआ करते थे वही पाटीदार समाज से लेकर गुर्जर और मराठा सहित अनेकों जातियां अपने आप को पिछड़ा कहलाने और आरक्षण प्राप्त करने के लिए हिंसा पर उतर आये है|
विदित हो कि जाट, मराठा, पटेल और राजपूत सामाजिक तौर पर अपने-अपने क्षेत्र की प्रभावशाली जातियां हैं| इसके बावजूद यदि ये जातियां आरक्षण के लिए आन्दोलन की राह पकड़ने पर बाध्य हुई है तो असल में ये खुद आरक्षण की मांग से ज्यादा दूसरे को आरक्षण देने के खिलाफ हैं और समाधान के तौर पर इन्हें भी आरक्षण चाहिए|
लेकिन कहा गया है कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ अर्थात् किसी भी चीज की अति नहीं होनी चाहिए क्योंकि अति अंतत: नुकसानदायक साबित होती है। आरक्षण को लेकर जिस तरह से जातिगत तनाव बढ़ा है, उससे यह स्पष्ट है कि जाति आधारित आरक्षण की अति ने उसके उद्देश्यों को ही नष्ट कर दिया है |
आरक्षण ने जाति उन्मूलन के बजाय उल्टे जातिगत अस्मिताओं को उभारने पर ही बल दिया, क्योंकि आरक्षण का लाभ लेने के लिए पहली शर्त है कि जाति-विशेष का अस्तित्व होना| इसका अर्थ है बिना जातिगत पहचान को बरकरार रखे आप सामाजिक-आर्थिक उत्थान की उम्मीद नहीं कर सकते है |
इस कारण लोगों के मन में यह आशंका घर कर गई है कि मौजूदा व्यवस्था कहीं से भी जाति को तोड़ती नहीं दिखाई देती। ऐसी स्थिति में जाति रहित एक समतामूलक समाज की परिकल्पना आकाशकुसुम के सामान है|
यह सही है कि आरक्षण से दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के सामाजिक एवं आर्थिक स्तर में कुछ बदलाव आया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इन जातियों के कुछ ही लोगों ने इसका अनवरत लाभ उठाया है जबकि इन जातियों के शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोग आरक्षण का लाभ उठाने में असफल रहे है क्योंकि इन जातियों के क्रीमीलेयर को पहचान कर उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर नहीं किया गया है |
जिस प्रकार किसी बीमार व्यक्ति के स्वस्थ होने के बाद उसे दवा नहीं दी जाती है, उसी प्रकार कमजोर को सबल बनाने के बाद भी स्थायी रूप से आरक्षण की बैशाखी पकड़ाये रखना संसाधनों की बर्बादी है |
आरक्षण का अधिकतर लाभ उन्हें ही मिलता है जिसे अब उसकी जरुरत नहीं है लेकिन जाति-विशेष का होने मात्र से आरक्षण का नाजायज लाभ उठा रहे हैं | समाज की मुख्य धारा में आ गए लोगो को आरक्षण का लाभ मिलते रहना कहाँ तक न्याय संगत है ?
आज़ादी के बाद संविधान निर्माताओं द्वारा सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण के प्रावधान पर संशय नहीं किया जा सकता है | लेकिन अब परिस्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है |
अब आरक्षण संवैधानिक प्रावधान की जगह एक ऐसा राजनीतिक हथियार बन गया है जिसे हमारे नेता गाहे-बगाहे कभी भी चला देते है और उन्हें इसका एहसास भी नहीं होता कि इससे देश और समाज को क्या नुकसान हो सकता है या हो रहा है | दूसरी बात यह है कि आज सामाजिक विषमताओं की तुलना में आर्थिक विषमतायें अधिक प्रभावी हो गई है।
अमीरी और गरीबी की खाई कुछ अधिक ही हो गई है। अब यह माना जाने लगा है कि गरीबी का कोई जातिगत विभाजन नहीं है | केवल एससी-एसटी और ओबीसी तबके और छोटी जातियों में ही गरीबी नहीं है, बल्कि अब हर जाति और समुदाय में एक बड़ा तबका गरीब है। दो हजार वर्ष पहले अरस्तू ने कहा था कि “अन्याय तब होता है जब एक समान लोगों के साथ असमान तरीके से व्यवहार किया जाता है और जब असमानों के साथ एक समान व्यवहार किया जाता है।”
आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों में यदि उनकी जाति के आधार पर भेदभाव किया जाता है तो अन्याय को ही बढ़ावा दिया जा रहा है | यह जाति विशेष के मानवाधिकारों की सुरक्षा के नाम पर दूसरे अन्य लोगों के मानवाधिकारों को कुचलने जैसा है, जिसे एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वीकार नहीं किया जा सकता है | इस तरह आरक्षण की यह मौजूदा नीति, जाति या लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करने के संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को ही पलीता लगा रही है।
ऐसी स्थिति में आरक्षण पर पुनर्विचार करना अनिवार्य हो जाता है | अब एक बड़े वर्ग ने और कुछेक नेता (हाल ही में मायावती और नितिन गडकरी ), भले ही राजनीतिक फायदे के लिए ही सही, जाति आधारित आरक्षण न देकर सिर्फ गरीबों को आरक्षण देने की मांग करने लगे है |
वर्ष 2014 के प्रारंभ में कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने कहा था कि देश में आरक्षण जाति आधार पर नहीं, बल्कि आर्थिक आधार पर किया जाना चाहिए| क्योंकि आज प्रश्न गरीबी का है और गरीबी की कोई जाति या धर्म नहीं होता।
लेकिन यहीं पर अहम सवाल यह खड़ा होता है कि आरक्षण के लिए गरीबी का आधार क्या होना चाहिए | गरीबी रेखा एक अहम आधार हो सकती है |
2014 में रंगराजन कमिटी ने देश की 38% या लगभग 45 करोड़ से अधिक आबादी गरीबी रेखा से नीचे है | जाहिर है इनकी पहचान मुश्किल नहीं है | काका कालेकर ने जब 1955 में पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष के रूप में अपनी रपट राष्ट्रपति को दी थी तो लिखा था कि उन्होंने पिछड़ापन जातियों के आधार पर जो तय किया है, वह मजबूरी में किया है।
उस समय जनगणना के वैज्ञानिक और तकनीकी तरीके कम उपलब्ध थे। लेकिन अब तो हर नागरिक की सामाजिक और आर्थिक स्थिति की जानकारी संभव है | भारत सरकार यदि चाहे तो उसकी एक योजना ने अनजाने में ही लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति और साथ आरक्षण के लिए एक नया आधार उपलब्ध करा दिया है |
वह योजना है प्रधानमंत्री जन धन योजना, जिसके तहत निम्न आय वर्ग के 33 करोड़ से अधिक लोगों के खाते खोले गए है जो रंगराजन कमिटी के गरीबी रेखा से नीचे के आंकड़े की काफी हद तक नजदीक है |
सरकार ने भले ही इस योजना की शुरुआत लोगों को कई तरह के फायदे देने के लिए की है, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि ये ऐसे लोग है जिन्हें आरक्षण देने पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए |
ऐसे परिवारों को शायद ही कभी आरक्षण (मौजूदा व्यवस्था के तहत ) मिला होगा | सरकार के एक आंकड़े के अनुसार देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालो में 80% अनुसूचित जाति, पिछड़े और मुसलमान है।
जाहिर है इस जन धन खाते के दायरे में अधिकतर वे ही जातियां आ जाती है जिन्हें आज जाति(एससी/एसटी और ओबीसी) के आधार पर आरक्षण दिया जाता है |
लेकिन साथ ही जन धन खाते के द्वारा इन जातियों से बाहर के वे लोग भी आरक्षण के दायरे में आ जायेंगे, जो आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए है| इन जन धन खातों में फर्जीवाड़े की गुंजाइश नगण्य है और कोई गुंजाइश बनती है तो इन खातों को आधार संख्या से जोड़ कर दूर किया जा सकता है |
मौजूदा सरकार के एक अन्य साहसिक कदम नोटबंदी ने क्रीमी लेयर के फिर से परिभाषित करने का आधार प्रदान किया है | नोटबंदी के बाद 56 लाख से अधिक नए करदाता जुड़े।
लाखों ऐसे भी करदाता सामने आये जो अबतक अपनी वास्तविक आय को छिपाते रहे है | नोटबंदी ने उन्हें अपनी वास्तविक आय घोषित करने पर विवश किया |
इस प्रक्रिया में वैसे लोगों की पहचान बेहतर ढंग से की जा सकती है जो अब तक क्रीमी लेयर से नीचे रहने के आधार पर आरक्षण का लाभ उठाते आ रहे हैं जबकि वे क्रीमी लेयर को पार कर चुके हैं |
सरकार ने पूरे देश भर में तक़रीबन 6 करोड़ गरीब परिवारों को उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन प्रदान किया है, जो पूरी तरह से आधार संख्या और बैंक खातों से जुड़े हुए है |
ये सभी परिवार आरक्षण के दायरे में स्वतः आ जायेंगे, क्योंकि यह स्वतः सिद्ध है कि जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति बेहतर हुई है, उन्होने कुछेक अपवादों को छोड़कर गैस कनेक्शन अवश्य लिया है |
लेकिन इसका यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि पहले से गैस कनेक्शन प्राप्त परिवारों को आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए | इसके लिए उनकी आय और आय के स्रोत जैसे मानदंडों, जिसकी जानकारी काफी हद तक उनके खातों से मिल सकती है, पर भी विचार किया जा सकता है |
अंत में, मै उपर्युक्त सुझाओं के फुलप्रूफ होने का दावा नहीं करता हूँ क्योंकि मै कोई आर्थिक विशेषज्ञ नहीं हूँ, लेकिन यह सही है ये सभी आधार उन वास्तविक गरीबों की पहचान में सहायक हो सकते है जिससे न केवल जातिगत रूप से पिछड़े लोगों बल्कि आर्थिक रूप से वंचितों को भी आरक्षण का लाभ दिया जा सकता है |
इसके साथ ही आरक्षण की प्रक्रिया को इस रूप में साकार किया जा सकता है कि आरक्षण का लाभ मिलने के बाद लोग बिना आरक्षण के आगे बढने के लायक बन सके न कि आरक्षण पाने के मौजूदा लोभ की तरह चिपके रहे |
सबसे अहम कि गरीबी या आर्थिक स्थिति को आरक्षण का पात्र मान लेने से निरंतर फ़ैल रहे जातीय विद्वेष को समाप्त किया जा सकता है। रही बात सामाजिक समानता कि तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आर्थिक समानता और शैक्षिक समानता, सामाजिक समानता का मार्ग स्वतः प्रशस्त कर देती है, जबकि आरक्षण की मौजूदा नीति लोगों को ने केवल लोगों को अपनी जातियों से चिपके रहने का प्रलोभन देती है, बल्कि उनके प्रति अन्य सामान्य जातियों में घृणा की भावना भी बढाती है, जो स्वस्थ लोकतंत्र के विकास में बाधक है |