उड़ता पंजाब के बहाने सेंसर बोर्ड के अफसाने
विक्रम उपाध्याय
उड़ता पंजाब के निर्माता निर्देशक और सेंसर बोर्ड के बीच लोमड़ी युद्ध कोई पहली और आखिरी घटना नहीं है।
1952, जब से सेंसर बोर्ड बोर्ड अस्तित्व में आया तब से फिल्मों को बनाने वाले और उन्हें चलाने के लिए सर्टिफिकेट देने वालों के बीच लड़ाई होती चली आ रही है।
बोर्ड के बारे में हर तरह के आरोप लगते रहे हैं और फिल्म इंडस्ट्री में लगातार यह बहस होती रही है कि आखिर सेंसर बोर्ड की जरूरत ही क्या है।
उड़ता पंजाब के निर्माता अनुराग कश्यप और बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी के बीच व्यक्तिगत अरोप प्रत्यारोप के कारण पूरी इंडस्ट्री ही को दो खेमों में बंट गई है।
कोई निहलानी को मोदी का चमचा कह रहा है तो कोई अनुराग कश्यप को आम आदमी पार्टी का एजेंडा चलाने वाला फिल्मकार।
उड़ता पंजाब मनोरंजन के बजाय राजनीतिक मुददों का अखाड़ा बन गया है। कहा तो यह जा रहा है कि आम आदमी पार्टी ने इस फिल्म को फायनेंस किया है।
क्योंकि इस फिल्म के सह निर्माता आम आदमी पार्टी के सक्रिय समर्थक है। चूंकि पंजाब के चुनाव में नशाखोरी एक बड़ा मुद्दा बनने वाला है, इसलिए इस अफवाह को बल मिला है कि आम आदमी पार्टी इस फिल्म के जरिये अपने एजेंडे का प्रचार करने की योजना बना रही है।
बहरहाल फिर कह रहे हैं कि फिल्म निर्माता और सेंसर बोर्ड के बीच यह न तो पहली लड़ाई है और न आखिरी। इस लड़ाई की एक लंबी फेहरिस्त है।
पहली फिल्म आंधी थी जिसे लेकर सेंसर बोर्ड और फिल्मा निर्माता में लंबी लड़ाई छिड़ी थी और तब भी इसके लिए राजनीतिक कारण को ही जिम्मेदार माना गया था।
संजीव कुमार और सुचित्रा सेन जैसे मंझे हुए कलाकारों और गुलजार जैसे बेहतरीन निर्देशक द्वारा निर्देशित इस फिल्म को 1975 में यह कह कर प्रतिबंधित कर दिया गया था कि यह फिल्म इंदिरा गांधी और उनके पति के बीच खटपट रिश्तों को उजागर करती है।
आपात काल के बाद जनता पार्टी की देश में सरकार आई तो फिर इस फिल्म को रिलीज किया गया।
आपात काल के दौरान ही सेंसर बोर्ड ने एक और फिल्म पर प्रतिबंध लगाया और उस फिल्म का नाम था किस्सा कुर्सी का। इस फिल्म का निर्माण तब के संसद सदस्य बद्री प्रसाद जोशी ने किया था।
तब कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि यह फिल्म संजय गांधी और इंदिरा गांधी को बदनाम करने के लिए बनाई गई है। संजय गांधी के समर्थकों ने तो सेंसर बोर्ड में घूसकर इस फिल्म की हर सामग्री लूट कर जला दी थी।
बाद में इस फिल्म का अलग अलग कलाकरों को लेकर फिर से निर्माण किया गया।
तमिल समस्या पर आधारित फिल्म कुत्रापथिरिकाई जिसका शाब्दिक अर्थ है चार्जशीट 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद बनी थी। इस फिल्म में राजीव गांधी के हत्यारों और श्रीलंका में तमिल टाइगरों के खूरी संधर्ष को दर्शाया गया था ।
सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म पर प्रतिबंध लगाया जिसे अंततः 2007 में कई काट छांट के बाद उसे दिखाने की अनुमति दी गई।
राजनीतिक कारणों से 2003 में बनी फिल्म हवाएं पर भी प्रतिबंध लगाया गया। बाबू मान, अमतोजे मान और सन्नी मान की इस फिल्म का विषय था 1984 का सिख दंगा।
इस फिल्म को पहले तो काफी समय तक लटकाये रखा गया और फिल्म को दिल्ली और पंजाब में आज भी रिलीज नहीं होने दिया गया।
ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं।
सेंसर बोर्ड के दरवाजे पर टकटकी लगाने और वहां से धक्के खाकर वापस आने वाली फिल्मों की संख्या सैकड़ों में है। नाथू राम गोडसे की जीवनी पर बनी फिलम गोकुल सरकार हो या विभाजन की पृष्ठ भूमि पर बनी गरम हवा।
लेस्बीयन रिश्तों पर बनी फिल्म फायर हो विकृत सेक्स पर बनी फिल्म गांडू। गुजरात के दंगांे पर बनी फिल्म फायनल सॉल्यूशन हो मुंबई के दंगांें पर बनी ब्लैक फ्राइडे सेंसर बोर्ड ने अपनी कैची चलाई ही।
इसलिए यह कहना कि आज पहलाज निहलानी अपनी मनमानी कर रहे हैं सही नहीं है। सेंसर बोर्ड का गठन ही फिल्मों पर नजर रखने के लिए है।
यदि आरोप रानजीतिक चश्में से देखने का है तो जब बोर्ड का गठन ही राजनीतिक पार्टियों की सरकारें करती हैं तो राजनीति क्यों न हों।