उदारीकरण ने डुबोया या पार लगाया!
विक्रम उपाध्याय
लोग यह जानना चाहते हैं कि आखिर उदारीकरण का फायदा आम आदमी को क्या मिला। देश आगे कितना बढ़ा और किसको कितना फायदा पहुंचा ?
पहले बात प्रतिव्यक्ति आय की करते हैं- इस मामले में भारत को उदारीकरण का बहुत फायदा नहीं हुआ है। हम इतने वर्षों में किसी भी बड़े देश की प्रति व्यक्ति आय के करीब भी नहीं पहुंच सके हैं।
हमारे बराबर जो देश खड़े हैं, उनमें बांग्लादेश (1211.7), कैमरून (1280) घाना (1381), केन्या (1376), पाकिस्तान (1429) और सब सहारा अफ्रीका (1571) ही हैं। हमारे यहाँ प्रति व्यक्ति आय लगभग 1800 डॉलर है|
यह शर्मनाक स्थिति नहीं तो क्या है? अब जरा इन बडे देशों की प्रति व्यक्ति आय देखिए, आस्ट्रेलिया (56327.7), कनाडा (43248), फ्रांस (36248), स्वीडन (50272.9), स्वीटजरलैंड (80214), यूनाइटेड किंग्डम (43734) और अमरीका (55836) डाॅलर प्रति व्यक्ति, ये हमसे कितने आगे हैं।
अब यह तय करना मुश्किल नहीं है कि उदारीकरण का फायदा भारत को कितना मिला है और भारत की तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था में यहां के नागरिकों को कितना लाभ पहुंचा है?
देश में जब उदारीकरण की बयार चली, तो वास्तव में हमारी अर्थव्यवस्था मुंह के बल गिर चुकी थी। तब हमारे पास बमुश्किल तीन सप्ताह के आयात बिल के लिए उपयुक्त विदेशी मुद्रा का भंडार था, केवल 1.2 अरब डाॅलर का।
तब हमारी कुल अर्थव्यवस्था का आकार भी 278.4 अरब डालर का था और हमार प्रति व्यक्ति आय केवल 310 अमरीकी डाॅलर थी।
आज हम अपनी स्थिति देखते हैं तो बहुत गर्व होता है कि हमारी अर्थव्यवस्था का आकार 2 खरब डाॅल से भी अधिक है, हमारे पास इस समय 364 अरब डाॅलर का विदेशी मुद्रा भंडार है और हमारी प्रतिव्यक्ति आय 1800 डाॅलर है।
यानी हम देखे तो 25 साल में हमारी अर्थव्यवस्था और प्रति व्यक्ति आय लगभग छह गुणी बढ़ गई है। यह खुश होने की बात है। पर यह खुशी तब काफूर हो जाती है जब इन्हीं आकड़ों की तुलना अन्य समकक्षी देशों से करते हैं।
इस 25 साल में हमारे सामाजिक ढ़ांचे पर खड़ी आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई है। परस्पर सहयोग के भाव से चल रही ग्रामीण व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गई है।
स्वरोजगार के अवसर, जिसमें खेती और उससे जुड़े व्यवसाय प्रमुख रूप से शामिल थे गायब हो गए हैं और उनकी जगह लेबर यानी मजूदर शब्द ने पैर जमा लिए हैं।
देश के प्राकृतिक संसाधन का, बर्बादी की सीमा तक दोहन कर लिया गया है और 50 साल से लोगों के खून पसीने से खड़े अधिकतर सार्वजनिक उद्यम या तो बेच दिए गए या बंद कर दिए गए हैं।
उदारीकरण में निजी लाभ पर कोई रोक टोक नहीं होने के कारण महंगाई दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती गई है। और सबसे प्रमुख बात कि इस 25 साल में विदेशी कंपनियों ने जितने लाभ इस देश से लूट खसूट कर अपने देश भेजे उतने ब्रिटिश शासन में भी कभी नहीं लूटे गए।
यदि इन आकड़ों को ग्रामीण भारत के संदर्भ में देखे तो स्थिति बेहद दयनीय नजर आती है।
हाल ही में सरकार द्वारा जारी आकड़ों के अनुसार 75 फीसदी ग्रामीण परिवार अपना जीवन 79 डाॅलर यानी लगभग 5000 रुपये से कम में व्यतीत करता है और इनमें से 28 फीसदी यानी लगभग पांच करोड़ परिवार के पास संचार के कोई साधन नहीं हैं।
सात करोड़ ग्रामीण परिवार सामाजिक सुरक्षा की सुविधाओं से वंचित है। अब क्या यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल है कि ग्रामीण भारत के लिए उदारीकरण का मतलब बड़ा शून्य से ज्यादा नहीं है।
लगे हाथ यह भी जान लेना आवश्यक है कि इस उदारीकरण ने खेती बाड़ी को आर्थिक रूप से घाटे का सौदा बना दिया है जिसके कारण तेजी से लोग इससे दूर जाने लगे हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार इस समय 40 करोड़ लोग खेती बाड़ी का त्याग कर शहर और कस्बों में मजदूरी के लिए भटक रहे हैं।
हमारे कृषि इनपुट बाजार पर इस समय विदेशी कंपनियों का कब्जा है उनमें स्विटरजरलैंड की सिंगेटा (18 फीसदी), जर्मनी की बेयर (17 फीसदी), जर्मनी की ही बीएएसएफ (10 फीसदी), अमरीका की मोनसेंटो (10 फीसदी), और डाॅ एग्रो (9 फीसदी), प्रमुख हैं।
चाहे बीज हो या कीट नाशक या कि खरपतवार नाशक सभी क्षेत्रों में विदेशी कंपनियां हावी हैं।
कृषि ही क्यों जिधर देखो उधर ही विदेशी ब्रांड और उत्पाद का बोलबाला है। कंप्यूटर और अप्लीकेशंस से जुड़े व्यवसाय में आईबीएम और माइक्रोसाफ्ट का बोलबाला है तो उपभोक्ता वस्तुओं के व्यवसाय में नेस्ले और प्राॅक्टर एंड गैम्बल का।
शीतल पेय में आज भी पेप्सीको और कोकाकोला छायी हुई हैं। इलेक्ट्राॅनिक में सोनी और सैमसंग का दबदबा है तो मोबाईल फोन में एप्पल को लेकर जबर्दस्त क्रेज है। बैंकिंग में एबीएन एमरो और अमरीकन बैंक के साथ सिटी क्राप का भी नाम है।
आॅटो सेक्टर में मारूति, हुंडई, हीरो, फोर्ड और जेनरल मोटर टाटा और महिन्द्रा को जबर्दस्त टक्कर दे रहे हैं तो खान पान में मैक डोनान्ड और पिज्जा भी मजबूती से जमे हैं।
जितनी पूरे यूरोप ओर अमरीका की जनसंख्या है उससे बड़ा मध्यआयवर्गीय बाजार भारत का है। इसलिए उदारीकरण का सबसे अधिक फल इन्हीं बड़े देशों को मिला है।
1991 से आज तक यह जाने समझे या समीक्षा किए बिना ही कि उदारीकरण का लाभ वास्तव में देश के अधिकतर लोगों को मिल भी रहा है या नहीं, विकास के नाम पर अमीरों को और अमीर और गरीबों को बहुत गरीब बनाने में ही कहीं यह उदारीकरण योगदान तो नहीं कर रहा, भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए बाहें पसारे खड़ा है।
उदारीकरण के नाम पर हमने कृषि, बागवानी, खनन, विनिर्माण, खाद्य प्रसंस्करण, प्रसारण अपलिंकिंग, एयरपोर्ट ग्रीनफील्ड, एयर पोर्ट ब्राउन फील्ड, एयर ट्रांसपोर्ट सेवाएं, निर्माण , इंडस्ट्रियल पार्क, थोक व्यापार, आर्थिक सलाहकार सेवाएं, फार्मा और पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस फील्उ को पूरी तरह विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिया है।
अब तो रक्षा क्षेत्र में भी शत प्रतिशत विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी गई है।
उद्योग से लेकर सेवा के क्षेत्र तक जहां जहां लाभकारी व्यवसाय हो सकता था, सभी पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कब्जा जमा लिया है।
यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। अब तो सवाल यह नहीं कि किस क्षेत्र को हमने विदेशी कंपनियों के लिए खोला है, बल्कि जिज्ञासा इस बात को जानने में है कि अब कौन सा क्षेत्र है जिसे भारतीय के लिए अभी भी आरक्षित रखा गया है।