गुजरात पर फैसला मोदी के लिए अग्नि परीक्षा
विक्रम उपाध्याय
मोदी जी जब वर्ष 2012 में गुजरात के अहमदाबाद से दिल्ली आने की तैयारी कर रहे थे, तब उस समय भी सबकी जुबान पर एक ही सवाल था- कौन होगा नरेन्द्र मोदी का उत्तराधिकारी?
आज चार साल बाद जब मोदी को प्रधानमंत्री बने लगभग 26 महीने हो गए- वह सवाल फिर उठ खड़ा हुआ है कि गुजरात में मोदी का विकल्प अब कौन होगा?
गुजरात में 13 साल के शासन में मोदी ने भाजपा का नाम पीछे और अपना नाम आगे कर लिया था और वह आज भी है। इसीलिए कोई यह बात नहीं कर रहा है कि भाजपा विधायक किसे चुनेंगे, सब यही कह रहे हैं कि मोदी अब किस पर विश्वास करेंगे?
इसमें किसी को शक नहीं कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ही मोदी के सबसे नजदीक हैं। लेकिन यह नजदीकी ही दोनों को फैसला लेने में कठिनाई पैदा करेगा।
दोनों के लिए यह तय करना मुश्किल है कि वे यहाँ दिल्ली में साथ साथ रहकर राष्ट्रीय राजनीति को नयी दिशा दें या अलग अलग होकर अपने किले की सुरक्षा करें?
प्रधानमंत्री के रूप में देश भर में डंका पीटने के बाद भी यदि भाजपा 2017 का चुनाव गुजरात में हार जाती है तो सबसे अधिक प्रभाव नरेन्द्र मोदी पर ही पड़ेगा।
इसलिए प्रधानमंत्री के सामने सबसे बड़ा सवाल ही यही है कि कौन चुनाव में भाजपा की किसी संभावित हार को टाल कर उनकी मुंह की लाली रख सकता है।
जाहिर है माथा पच्ची बहुत होनी है, क्योंकि 2014 में यह फैसला जितना आसान था 2016 में उतना ही कठिन। इस कठिनाई की अपनी एक और कठिनाई यह है कि इसमें सलाहकार मौजूद नहीं होंगे।
यह फैसला पूरी तरह प्रधानमंत्री का होगा और अमित शाह इसे लागू करेंगे।
गुजरात में मुख्यमंत्री बदलने का फैसला चाहे जिन परिस्थितियों में लिया गया हो। समय उपयुक्त नहीं चुना गया। गुजरात की राजनीति में दलित उत्पीड़न को लेकर उठा तूफान थमने देने की जरूरत थी।
बाढ़ और महंगाई का तीन महीने का यह समय निकलने देना चाहिए था। कश्मीर में अशांति और विपक्ष के हमले को ठंडा करने को प्राथमिकता देना चाहिए था और सबसे जरूरी था आनंदीबेन के इस्तीफे को नाटकीय बनाने से रोकना।
यही काम विधायकों की बैठक या पार्टी के संसदीय बोर्ड में किया जाता तो शायद और बहुत से विकल्प मिलते। पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेता अपनी राय रख सकते थे।
प्रधानमंत्री का यह फैसला अन्य फैसलों की तरह एक तरफा या निर्देशात्मक नहीं लगता। खैर प्रधानमंत्री मोदी हमेशा ही राजनीतिक गणित का लेखा जोखा अपने आकड़ों के साथ करते हैं और हमेशा सफल भी रहते हैं। शायद इस बार भी ऐसा ही हो।
बहरहाल इस बार का राजनीतिक गणित थोड़ा कठिन होगा। गुजरात में भाजपा बंटी हुई है और सरकार की पकड़ लगातार ढीली होती जा रही है। कभी एकक्षत्र राज करने वाली भाजपा के सामने बड़ी बड़ी चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं।
कांग्रेस लगातार मजबूती पकड़ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में उसकी बढ़त पिछले स्थानीय निकायों में दिख भी गई। तब से भाजपा सरकार कमजोर और कांग्रेस मजबूत ही हुई है। रही सही कसर आम आदमी पार्टी पूरा कर रही है।
अरविंद केजरीवाल यहां दिल्ली में ताल ठोकते ठोकते गांधीनगर पहुंच गए हैं। सबसे उल्ल्ेखनीय बात तो यह है कि उनके साथ भाजपा के ही रूठे हुए या असंतुष्ट नेता जुड़ रहे हैं। गुजरात में राजनीति का अखाड़ा भी बहुत तेजी से बदल रहा है।
2002 से लेकर हाल तक हुए गुजरात में सभी चुनाव हिंदू-मुस्लिम धु्रवीकरण के बीच ही होता रहा, और हर बार भाजपा बाजी मारती रही, लेकिन धीरे धीरे सांप्रदायिक मुद्दे कुंद पड़ गए हैं और उनकी जगह जातिगत राजनीति स्थान घेरती जा रही है।
पाटिदार आरक्षण का मुद्दा अब चुनाव से पहले ठंडा नहीं पड़ने वाला और भाजपा के लिए कोढ़ में खाज की तरह दलित आंदोलन लगने लगा है। सबसे ज्यादा गंभीर बात तो यह है कि दलितों के खिलाफ हुई सारी कार्रवाई भाजपा के खाते में चढ़ा दी गई है।
विपक्ष इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में सफल रहा है और टीवी चैनलों पर बैठे मोदी एलर्जिक एंकरों ने इसे बढ़ा चढ़ा कर दिखाने मंे कोई कोताही नहीं बरती और यह कहने में कोई संकोच नहीं कि भाजपा ने इस मिथ्याचार की काट के लिए ना तो कोई ठोस कार्रवाई की और ना ठोस तर्क ही रखा।
इतनी सारी चुनौतियां भाजपा के अन्य नेताओं को भले ही ना दिखे मोदी और अमित शाह को जरूर दिख रही होंगी। क्योंकि गुजरात विधान सभा चुनाव का कोई भी अनापेक्षित परिणाम मोेदी के लिए तो सिर्फ नैतिक असर डालेगा, लेकिन अमित शाह के लिए कई तरह की समस्याओं का कारण बन जाएगा।
प्रधानमंत्री के रूप में कार्यपालिका के सर्वोच्च आसन पर बैठे व्यक्ति से विपक्ष पार नहीं पा सकता, लेकिन यह लक्जरी अमितशाह को नहीं मिलने वाली।
जब नेशनल हेराल्ड जैसे छोटे मामले सोनिया और राहुल को कोर्ट के कठधरे में पहुंचा सकते हैं तो अमित शाह के मामले में तो कांग्रेस पहले से ही कई डोजियर तैयार करके बैठी है।
इस लिए नये मुख्यमंत्री चयन का आधार यह भी होगा कि अमित शाह को किस तरह किसी संभावित खतरे से बचाये रखा जा सकता है। इसका विकल्प यह हो सकता है कि स्वयं अमित शाह ही मुख्यमंत्री के रूप मंे गुजरात का कार्यभार संभाल ले।
प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए विकल्पों को आजमाने का यह कोई अंतिम अवसर नहीं होगा। अभी चुनाव में लगभग एक साल का समय है।
हालांकि किसी भी नये मुख्यमंत्री के लिए एक साल का समय कोई ज्यादा नहीं होता, पर भाजपा में चुनाव के ऐन वक्त पहले मुख्यमंत्री बदलने की परंपरा खूब है। दिल्ली, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा ऐसा कर चुकी है।
लेकिन हां यहां गुजरात में सिर्फ सत्ता बरकरार रखना ही मकसद नहीं है, मोदी के इकबाल और अमित शाह के चाणक्य अवतार को भी बचाना उद्देश्य है। मामला संचमुच पेचीदा है।