मौसम की गर्मी से भी ज्यादा तपन पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़
विक्रम उपाध्याय
मौसम की गर्मी से भी ज्यादा तपन पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती कीमत से हो रही है! एक पखवाड़े से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में रोज ही इजाफा हो रहा है. राजनीतिक मुद्दे के साथ-साथ अब यह विषय जनता के आक्रोश का भी कारण बन रहा है. लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं, जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं. कहने की आवश्यकता नहीं कि विरोधी दल सरकार के खिलाफ इस मुद्दे को और हवा देने में लगे हैं.
इसके पहले कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत के राजनीतिक मुद्दे बनने की वजह तलाशी जाए एक नजर इसके गणित पर भी डालते हैं. हम सभी जानते हैं कि देश अपनी जरूरत का 70% से अधिक पेट्रोलियम पदार्थों का आयात करता है. इसलिए प्राथमिक तौर पर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों का निर्धारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की उपलब्धता एवं उसकी कीमत पर निर्भर करता है.
इस समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 75 से 80 डॉलर प्रति बैरल चल रही है. सरकार का दावा है की तेल की बढ़ती कीमतों के कारण उसकी लागत भी बढ़ रही है और इस कारण घरेलू बाजार में पेट्रोल और डीजल के दाम लगातार बढ़ रहे हैं. हम यह भी जानते हैं कि सरकार ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मौजूद कीमत स्तर को घरेलू बाजार से जोड़ रखा है. यानी हर दिन के हिसाब से पेट्रोल और डीजल की कीमतों का निर्धारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मौजूद कीमत स्तर के आधार पर किया जाता है.
जिस दिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत कम होती है उस दिन घरेलू बाजार में पेट्रोल और डीजल के दाम भी कम हो जाते हैं लेकिन जिस दिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत बढ़ जाती है उस दिन घरेलू बाजार में भी उसी अनुपात में पेट्रोल-डीजल के दाम भी बढ़ जाते हैं. विपक्ष का आरोप है कि केंद्र सरकार ने जानबूझकर पेट्रोल और डीजल के दाम ऊंचे स्तर पर बनाए रखा है और सरकार उससे भरपूर लाभ कमा रही है.
यह तथ्य पूरी तरह सही नहीं है. यदि हम अंतर्राष्ट्रीय बाजार से घरेलू पेट्रोल पंप तक कीमत निर्धारण की पद्धति एवं उसके फार्मूले पर विचार करें तो पाएंगे कि जितना केंद्र सरकार पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत में वृद्धि के लिए जिम्मेदार है इतना राज्य सरकारें भी हैं . आखिर पेट्रोल एवं डीजल की कीमत का निर्धारण कैसे होता है? उदाहरण के लिए यदि हम मान लें कि वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत लगभग 73 डॉलर प्रति बैरल है इस आधार पर देखें तो भारत को प्रति लीटर कच्चे तेल की कीमत लगभग एक 31 रुपये चुकानी पड़ती है.
जब यह कच्चा तेल भारत पहुंचता है तब इस पर इंट्री टैक्स लगता है, रिफाइनरी प्रोसेसिंग फी लगती है तब यही कीमत ₹40 प्रति लीटर हो जाती है. अब केंद्र सरकार पेट्रोल के उत्पादन पर अतिरिक्त उत्पाद शुल्क एवं सड़क विकास शुल्क के रूप में लगभग 20 रुपये प्रति लीटर और डीजल पर साढे 15 रुपये वसूलती है..
यानी केंद्र सरकार के शुल्क के बद पेट्रोल की लागत प्रति लीटर 60 रुपसे से अधिक हो जाती है और डीजल की लागत लगभग 57 रुपये.इसके बाद राज्य सरकार अपना टैक्स लगाती हैं. विभिन्न राज्यों में इस पर सेल टैक्स यानी वैट अलग-अलग दर से लगायै जा रहे है .
पेट्रोल पर 27 रुपये प्रति लीटर तक और डीजल पर लगभग 17 रुपये तक राज्य सरकारे वैट लगा रही हैं. इस तरह देश में पेट्रोल पंप तक पेट्रोल 76 रुपये से अधिक और डीजल 67 रुपए पहुंच आ रहा है.
अब सवाल यह है कि की लागत से लगभग दोगुने दाम पर पेट्रोल एवं डीजल की बिक्री क्यों हो रही है? केंद्र सरकार या राज्य सरकारें डीजल एवं पेट्रोल की कीमतों में कमी पर एकमत क्यों नहीं हो रही है?
क्या केवल एक राजनीतिक मुद्दा भर है पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत. या फिर सचमुच जनता को राहत प्रदान करने का कोई सार्थक प्रयास हो सकता है? तमाम राजनीतिक पार्टियां केंद्र सरकार को पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के लिए जिम्मेदार ठहराने पर लगी है .
भारतीय जनता पार्टी को छोड़ सभी राजनीतिक दल यह दबाव बनाने में लगे हैं कि मोदी सरकार केंद्रीय उत्पाद शुल्क घटा दे जिससे पेट्रोल एवं डीजल की कीमत में कमी आ जाए. केंद्र सरकार ने ऐसा किया भी, 2018 19 के बजट में पेट्रोलियम पदार्थों के ऊपर लगे उत्पाद शुल्क को लगभग 2 रुपये कम किए गए लेकिन सड़क निर्माण सेस बढ़ा दिए गए.
अब केंद्र सरकार यही दलील दे रही है कि यदि केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सड़क निर्माण सेस में कमी कर जनता को तत्काल राहत पहुंचाने की कोई कोशिश की जाती है तो इसका असर विकास परियोजनाओं पर बहुत बुरा हो सकता है. देश में इस समय 25 किलोमीटर प्रति दिन हाईवे का निर्माण हो रहा है .
तमाम सोशल स्कीम्स इसी बूते लॉन्च की जा रही हैं . यदि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में कमी के लिए शुल्को में भारी कमी की जाती है तो ढांचागत उद्योग एवं जन कल्यान योजनाओं के लिए धन की भारी कमी हो सकती है .यही दलील राज्य सरकारों की भी है . 27% तक वेट वसूलने वाली राज्य सरकारें यह कहती है कि यदि उन्होंने अपना वेट कम किया तो उनका सीधा कर स्रोत संकुचित हो जाएगा और वे अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन तक नहीं दे पाएंगे.
आखिर इस समस्या का समाधान क्या है? विशेषज्ञों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमत अभी और बढ़ सकती हैं .प्रति बैरल 100 डालर तक कीमत उछल सकती है. ऐसे में
एक स्थाई समाधान का तरीका है – यदि राज्य सरकारें केंद्र के इस प्रस्ताव पर सहमति जताती हैं कि पेट्रोलियम पदार्थों को भी जीएसटी के दायरे में लाया जाए तो देश में एक समान कर का निर्धारण पेट्रोलियम पदार्थों पर भी हो सकता है.
फिर कीमतों में अच्छी खासी कमी लाई जा सकती है .लेकिन यह दूर की कौड़ी मालूम होती है .क्योंकि पेट्रोलियम पदार्थों पर लगे वैट से उनकी आमदनी सीधे उनकी झोली में पहुंचती है. एक बार जीएसटी के दायरे में आने के बाद कर वसूली कम हो जाएगी और फिर दर निर्धारण में भी सहमति बनाना आसान नहीं होगा.
फिलहाल यह मुद्दा काफी गर्म है. जनता को तत्काल राहत देने की आवश्यकता है.
लेकिन राजनीतिक रूप से यह विषय केंद्र और राज्य दोनों के अधीन है इसलिए कोई रास्ता आपसी सहमति के आधार पर ही बन सकता है .मोदी सरकार को कोसने के बजाय अलग-अलग राज्यों में शासन कर रही राजनीतिक पार्टियों को भी जनता के हित में कुछ फैसले करने पड़ेंगे या फिर भाग्य के भरोसे बैठे रहना पड़ेगा कि कब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में कमी आए और हम देशवासियों को पेट्रोल और डीजल सस्ता मिले.