राजनोमिक्स रहेगा या जायेगा?

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विक्रम उपाध्याय

रघुराम राजन सितंबर 2016 के बाद रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रहें या ना रहें, लेकिन अपने तीन साल के कार्यकाल में उन्होंने राजनोमिक्स का दबदबा स्थापित करके दिखा दिया है।

राजनीतिक आकाओं को खुश कर वाहवाही लूटने के बजाय राजन ने अपने फैसलों पर दृढ़ता और अपनी सोंच पर भरोसा रखने का फार्मूला अभी तक कायम रखा है।

पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम के सलाहकार से भारतीय केंद्रीय बैंक के प्रमुख बनने तक भले ही उन्होंने अपनी कोई छाप नहीं छोड़ी, लेकिन सितंबर 2013 को सुब्बाराव से आरबीआई की कमान लेने से लेकर आज तक बैंकिंग और मुद्रा बाजार में सिर्फ अपनी ही चलाते आ रहे हैं।

भले ही उनके फैसलों को लेकर दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं आती रहीं, कुछ लोग उन्हें भारत की अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाने का श्रेय दे रहे हैं तो कुछ लोग कॉरपोरेट की हत्या और बाजार में मांग गायब करने वाले बता रहे हैं।

भाजपा नेता सुब्रम्णयम स्वामी कहते हैं- राजन ऐसा डॉक्टर है, जो बुखार का बेहतर इलाज मरीज को मार देना मानता है।

कभी राजन को लेकर तल्ख टिप्पणी करने वाले चिंदबरम आज उनके सबसे बड़े समर्थक हैं। चिदंबरम ने कहा था कि यदि आरबीआई भारतीय अर्थव्यवस्था को संभालने में उनके साथ नही आता तो वे अकेले चलने के लिए तैयार हैं।

आज वहीं चिदंबरम यह कह रहे हैं कि राजन अर्थव्यवस्था को समझने वाले बेहतरीन दिमाग वाले शख्स हैं। पर वास्तव में राजन है क्या?

एक दक्षिण भारतीय परिवार में जन्में, दिल्ली के स्कूल डीपीएस आरकेपुरम में स्कूली शिक्षा प्राप्त राजन आईआईटी दिल्ली से प्रौद्यगिकी में स्नातक के बाद आईआईएम अहमदाबाद से मैनेजमेंट की डिग्री लेकर विदेश गये, फिर वहां पढ़ने पढ़ाने में कई साल लगाने के बाद आईएमएफ यानी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के चीफ इकोनॉमिस्ट बन गए।

भारत में पी चिदंबरम ने उन्हें अपना मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाया और फिर आरबीआई का चीफ।

इस बीच उन्होंने अमरीका का ग्रीन कार्ड भी हासिल कर लिया। भाजपा में संघ पृष्ठभूमि के नेता और स्वदेशी विचार धारा वाले लोग अमरीकी ग्रीन कार्ड को भी उनका अमरीका परस्त होना बताते हैं।

अकेले सुब्रमण्यम स्वामी ही राजन के आलोचक नहीं है। भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी भी राजन को विदेशी सोंच वाला बता चुके हैं।

जब राजन ने आरबीआई की कमान संभाली थी, तो देश के सामने कई चुनौतियां थी। एक तो महंगाई तेजी से बढ़ रही थी और दूसरे रुपये में भारी गिरावट देखी जा रही थी।

विकास दर भी घट कर पांच फीसदी के पास आ गया था। विदेशों में भारतीय अर्थव्यवस्था को स्थिर से डंवाडोल के रूप में देखा जाने लगा था। वैसे में राजन ने अपने नेतृत्वकौशल और अर्थव्यवस्था की बेहतरीन समझ का परिचय दिया।

उनकी पहली कोशिश साढ़े तीन फीसदी तक व्यापार घाटे को लाना था, दूसरी कोशिश मुद्रा स्फीति की दर पांच फीसदी से अधिक नहीं ब़ढ़ने देने की थी और तीसरी कोशिश रुपये को स्थिर बनाने की थी।

आकड़े बताते हैं कि इन्होंने तीनों मोर्चों पर सफलता हासिल की। लेकिन कहते हैं कि अपने फैसलों पर किसी तरह का हस्तक्षेप बर्दाश्त न करने वाले राजन धीरे धीरे निरंकुश भी होते चले गए।

उन्होंने बैंकों पर जबर्दस्त दबाव बनाना शुरू किया। आरबीआई के खजाने से सस्ते पैसे देने के बजाय उन्होंने बैंकों को मुद्रास्फीति से संबंद्ध बांड जारी कर पैसा जुटाने का रास्ता बताया। कॉरपोरेट साख यानी कर्जों पर पूरी तरह अंकुश लगा दिया।

नतीजा बैंकों को महंगे ऑप्शन पर जाने को मजबूर होना पड़ा। कॉरपोरेटों की बैंलेस शीट पूरी तरह बिगड़ कर रह गई और बाजार से मांग गायब हो गई, जिसके कारण औद्योगिक उत्पादन दर कई बार नकारात्मक वृद्धि दर तक चली गई।

वक्त बीत गया। हालात थोड़े बदल गए। देश में मोदी के नेतृत्व में नई सरकार आ गई। जीडीपी के अच्छे आकड़े भी आ गए, लेकिन राजन की सोंच ज्यादा नहीं बदली।

वे अब भी मानते हैं कि भारत की मुद्रा नीति कठोर ही रहनी चाहिए। मार्केट में एक डिसीपलीन बनी रहनी चाहिए। बैंक जब तक अपने एनपीए को कम कर स्टेबिल नहीं हो जाते तब तक एग्रेसिव क्रेडिट पॉलिसी नहीं अपनानी चाहिए।

राजन ने इसके लिए आगे के और दो साल मांगे हैं जब कंपनियों की बैलेंसशीट दुरूस्त हो जाएगी। यानी तब तक कंपनियां या तो अपने व्यापार को अपने आतंरिक स्रोतों से चलाएंगी या फिर विदेशों से पैसा जुटा कर ही बड़ी परियोजनाएं करेंगी।

अपने इस सोंच पर राजन किसी तरह का समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं और इसलिए कई बार वह अपनी सीमा से आगे जाकर भी सरकार के कुछ फैसलों की आलोचना कर देते हैं।

राजन प्रधानमंत्री मोदी के साथ नजदीकी का संबंध रखते हुए भी उनकी ही योजना मेक इन इंडिया का मजाक उड़ाते रहे हैं। वे आज भी हर मंच से कहते हैं कि मेक इन इंडिया के बजाय मेक फॉर इंडिया का कैम्पेन चलाया जाना चाहिए।

उनका मानना है कि यदि भारत ने मेक इन इंडिया के तहत उत्पादन हब बनाया भी तो हमारा माल खरीदेगा कौन? क्योंकि इस समय पूरी दुनिया मंदी की चपेट में है और दुनिया का सबसे बड़ा प्रोडक्शन हब बना चीन कराह रहा है।

राजन की इस साफगोई से भाजपा के कई नेता और मंत्री खफा भी हैं। स्वयं वित्तमंत्री अरूण जेटली इस मामले मंे राजन की खिंचाई कर चुके हैं। पर राजन को इससे फर्क नहीं पड़ा है।

उनके आरबीआई प्रमुख पद रहने या ना रहने की बहस पर प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर रोक लगाने की कोशिश की है कि आरबीआई प्रमुख के पद पर फैसला प्रेस के जरिए नहीं समय आने पर ही होगा।

यानी सितंबर में ही सरकार यह फैसला सुनाएगी कि राजन रहते हैं या जाते हैं। पर प्रो राजन और एंटी राजन के बीच शब्दों के मिसाइल चलते रहेंगे।

प्रो राजन गुट यह प्रचारित करने में लगा है कि यदि उनकी बिदाई आरबीआई से होती है तो विदेशी निवेशको का विश्वास डोल जाएगा और उनके साथ साथ विदेशी निवेश भी बाहर चला जाएगा।

जबकि एंटी राजन गुट यह कह रहा है कि यदि वह आरबीआई के गवर्नर बने रहते हैं तो देश की आतंरिक व्यवस्था चरमरा जाएगी। लोगों को ना तो रोजगार मिलेगा और न कल कारखाने चलेंगे।

दोनों गुट सही हो सकते हैं पर राजन दोनों को ही संतुष्ट नहीं कर सकते।